Wednesday, February 10, 2010

बदलना होगा खुद को

लोकतंत्र ! यानि जनता के लिए जनता का शासन। हमारे देश में भी लोकतंत्र है और हमें सरकार व जनप्रतिनिधि चुनने का अधिकार, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? क्या हम लोकतंत्र के प्रति अपने अधिकारों व क‌र्त्तव्य को लेकर सजग हैं? यह एक बड़ा सवाल है। लोकतंत्र में किसी भी देश को सरकार व जनप्रतिनिधि वैसे ही मिलते हैं, जैसा उसका समाज होता है। वर्तमान में देश की जो राजनीतिक हालत है, उसके लिए केवल राजनीतिक दल व राजनेता ही दोषी नहीं हैं। कहीं न कहीं हम सभी जिम्मेदार हैं, क्योंकि उन्हें सत्ता में पहुंचाने का काम तो हम ही करते हैं, कभी वोट डालकर कभी उदासीन रह कर। जो मतदान करते हैं, अपनी क्षणिक सुविधा के लिए देश का दीर्घकालिक हित नहीं देखते। जो नहीं करते उनका मानना है कि सरकार चाहे किसी भी दल की बने उनकी स्थिति में विशेष बदलाव आने वाला नहीं है। हालांकि, ऐसा कर के वे एक तरह से अप्रत्यक्ष रूप से अयोग्य उम्मीदवारों की मदद ही करते हैं। चुनाव के प्रति जनता की उदासीनता लोकतंत्र के लिए शुभलक्षण नहीं है। सच तो यह है कि खरे-खोटे की शिनाख्त करने की जिम्मेदारी लोकतंत्र में सिर्फ जनता की है। सोचिए, आखिर आपका चुनाव बदलाव क्यों नहीं ला पाता। पांच साल बाद फिर आया है मौका। आगे आइए, सोचिए, समझिए, फिर नीति के नाते दल व व्यक्तित्व के नाते व्यक्ति को चुनिए। समय आ गया है, जब देश के हर नागरिक को यह सोचना होगा कि आखिर क्यों उनका नुमाइंदा दागदार है? सीधी सी बात है कि किसी भी नेता के चरित्र को देख कर उसके पीछे चलने वालों के चरित्र का आकलन किया जा सकता है। तो क्या मुट्ठी भर दागदार लोग देश की सौ करोड़ आबादी के चरित्र पर धब्बा लगा रहे हैं? क्या जिस लोकतंत्र के प्रति देश का हर खासो-आम श्रद्धा का भाव रखता है वह ऐसा ही होना चाहिए? जिन्हें हम चुन कर संसद में भेजते हैं क्या वह हमारी अपेक्षा के अनुरूप देश को चला रहे हैं? यदि नहीं तो फिर निश्चित रूप से गलती है हमारे फैसलों में।
हम जिन लोगों को चुन कर भेजते हैं उन्हें अपने सारे अधिकार सौंप देते हैं। अधिकार सौंपने से पहले विचार भी नहीं करते कि कितना अहम फैसला लेने जा रहे हैं। एक ही तरह की गलती बार-बार करते जा रहे हैं और उसका नतीजा हर बार पहले से कुछ अधिक दुखदायी सिद्ध होता है। हम व्यवस्था और तंत्र का रोना अवश्य रोते हैं, किंतु अपने गिरेबान में झांक कर कभी नहीं देखते। कभी उन कारणों की तलाश नहीं करते जो व्यवस्था में इस गड़बड़ी के कारक हैं। क्या यह अपनी जिम्मेदारियों से मुंह चुराने जैसा नहीं है?
आखिर कब तक, कब तक चलता रहेगा यह सब? हम इस खुशफहमी में जीते रहेंगे कि हम देश के सबसे बड़े लोकतंत्र के नियंता हैं, जबकि लोकतंत्र के नाम पर एक बदनुमा और अंधा तंत्र देश में फैला है। अब वक्त आ गया है जब हम आत्ममंथन करें और देखें कि इस सब के लिए केवल और केवल हम जिम्मेदार हैं। जिस दिन हम यह समझ लेंगे कि यह व्यवस्था हमारी ही गलतियों का परिणाम है, उस दिन हम इसे आसानी से बदल देंगे। खास कर युवाओं को इस काम में महती भूमिका निभानी होगी। युवा गलत बातों को तब तक नहीं पसंद करते, जब तक कि वह उनके परिवेश का हिस्सा न बन गई हो और वे उन बातों के अभ्यस्त न हो गए हों। प्राकृतिक रूप से युवा बुराई से नफरत करने वाले होते हैं। देश की भ्8 प्रतिशत से अधिक आबादी जवान है। यह समय है जब देश और समाज में मौजूद कुछ बुराइयों से मुक्ति पाई जा सकती है, बशर्ते युवा इस बात का अहसास करें कि उन्हें इस बदलाव का नेतृत्व करना है। हमें एक फैसला भर तो लेना है, यह सोचना भर है कि हम चुप नहीं बैठेंगे, हम सब कुछ ऐसे ही नहीं चलने देंगे, हम बदल देंगे। वैसे भी यह जनता का फर्ज है कि वह जो भी फैसला करे पूरे माप-तौल के बाद करे। ऐसे लोगों को चुने जो देश का हित करने वाले हों। चाहे वो किसी भी राजनीतिक दल के हों और सरकार चाहे किसी भी दल की बने। बदलाव का समय आ गया है और देश की जनता को यह समझना होगा कि केवल नेता बदलने से काम नहीं चलेगा, बल्कि व्यवस्था बदलने की आवश्यकता है। व्यवस्था तब बदलेगी जब हम सही फैसला करें। फैसला, अपने हक के लिए और अपने देश के लिए।

-कमलेश रघुवंशी