Tuesday, October 11, 2011

एक साल की सरकार ही बडी उपलब्धि

झारखंड में अर्जुन मुंडा की गठबंधन सरकार ने एक साल का कार्यकाल पूरा कर लिया है। इस दौरान सरकार के कामकाज को लेकर दावे और प्रति दावे के दौर जारी हैं। सत्ता पक्ष जहां अपने कार्यकाल की उपलब्धियां गिना रहा है वही विपक्ष और सत्ता में भागीदार दलों के कुछ नेताओं की नजर में सरकार कई मोर्चो पर फेल है और सही दिशा में काम नहीं कर रही है। इसके बावजूद जिस तरह से इस सरकार ने एक साल का समय पूरा किया है उससे एक बात साफ हो गई है कि तमाम विसंगतियों के बावजूद अर्जुन मुंडा अलग-अलग विचारधारा और राजनीतिक उद्देश्यों को अधिमान देने वाले दलों को साधकर चलने में काफी हद तक सफल हुए है।
यह विडंबना ही है कि अपने स्थापना काल से ही यह राज्य राजनीतिक अस्थिरता का शिकार रहा है। 11 साल के इतिहास में कई सरकारें बनी लेकिन कार्यकाल पूरा करना तो दूर की बात है वे साल डेढ़ साल भी नहीं चल पाई। शिबू सोरेन खुद इसी गठबंधन की सरकार पांच माह भी नहीं चला पाए थे। यह ठीक है कि किसी भी सरकार की उपलब्धियों का आकलन उसके द्वारा किए कार्यों के आधार पर किया जाता है लेकिन झारखंड के परिपेक्ष्य में यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि सरकार आगे कितने दिन चलेगी। क्या इतिहास अपने आपको दोहराएगा? या कोई नई राजनीतिक गाथा लिखी जाएगी। इस समय जिस तरह से सरकार को सत्ता प्रतिष्ठान के अंदर से ही चुनौतियां मिल रही हैं उससे ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य में भाजपा नीति गठबंधन सरकार की आगे की राह आसान नहीं है। सरकार में भागीदारी दल महज सरकार में हिस्सेदारी से संतुष्ट नहीं है वे सत्ता की सवारी करना चाहते हैं। जब सरकार चलाने के लिए गठित राज्य समन्वय समिति के प्रमुख शिबू सोरेन ही बार-बार सरकार के कामकाज पर अंगुली उठा रहे हैं और अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए सरकार के लिए मुश्किल पैदा कर रहे हैं तो यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि वह सरकार नहीं अर्जुन मुंडा के कामकाज को निशाना बना रहे हैं क्योंकि सरकार में तो उनकी भी पार्टी भागीदार है। सरकार को खतरा उसके सहयोगी दलों से ही है। यह सरकार चलेगी तो आपसी सामंजस्य से और गिरेगी भी तो आपसी अंतरद्वंद्व से। फिलहाल सामंजस्य तो बैठ नहीं रहा है, अंतरद्वंद्व ही ज्यादा दिख रहा है। गुरु जी के बाद अब झामुमो के मुख्य सचेतक नलिन सोरेन ने भी एक तरह से अल्टीमेटम दे दिया है कि छह माह में विकास की गति तेज नहीं हुई तो सरकार बदल दी जाएगी। इससे एक बात स्पष्ट है कि घटक दल भी इस गठबंधन को ज्यादा दिन नहीं चलाना चाहते लेकिन वे सरकार को गिराने का ठीकरा अपने सिर नहीं बांधना चाहते इसीलिए ऐसे पैतरे आजमाए जा रहे हैं। विपक्ष भी सरकार बनाने का मंसूबा पाले हुए है लेकिन वह पहल तभी करेगा जब सरकार अपनी विसंगतियों की वजह से गिर जाए, क्योंकि यदि सरकार गिराने का प्रयास बाहर से किया जाएगा तो उसका सीधा फायदा भाजपा को ही मिलेगा और यही बात अर्जुन मुंडा की सरकार की मजबूती के पक्ष में जाती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अगले छह माह अर्जुन मुंडा सरकार के लिए चुनौतियों से भरे होंगे और वह इससे निपटने के लिए कितने संतुलित कदम उठाते हैं यह देखने वाली बात होगी।

रहा सवाल सरकार के साल भर के कामकाज के आंकलन का तो ऐसा भी नहीं है कि उसके खाते में कोई उपलब्धि दर्ज नहीं हुई है। 32 वर्षों से राज्य में लटके हुए पंचायत चुनाव करवा कर मील का पत्थर गाड़ा है। यह अलग बात है कि अभी इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना बाकी है। राइट टू सर्विस एक्ट, राज्य में बोली जाने वाली 11 भाषाओं को द्वितीय राजभाषा का दर्जा देना और भ्रष्टाचार पर कड़े प्रहार की नीति के दूरगामी नतीजे सामने आएंगे। इसके अलावा भी सरकार के पास अपनी उपलब्धियां गिनाने के लिए बहुत कुछ है। अर्जुन मुंडा अपने एक साल के कार्यकाल की उपलब्धियों से खुश हो सकते हैं लेकिन उनके समक्ष अपने सहयोगी दलों को साधने और राज्य को विकास की पटरी लाने की बड़ी चुनौती है।

राज्य सरकार सहकारिता आधारित विकास की अवधारणा पर काम कर रही है। यह ठीक भी है क्योंकि राज्य की माली हालत ऐसी नहीं है कि वह अपने बूते इस काम को कर सके लेकिन उसे इस बात का ध्यान रखना होगा कि सहकारिता के आधार पर जो योजनाएं बने उसका लाभ प्रत्यक्ष रूप से राज्य को मिले। यह इसलिए भी आवश्यक है कि पूर्व के अनुभव सुखद नहीं रहे हैं। योजना आयोग की रिपोर्ट के आंकड़ों पर नजर डाले तो पता चलता है कि झारखंड के 24 में 14 जिले अति गरीब इलाकों में शुमार है। आजादी के छह दशक और अलग राज्य गठन के 11 वर्षों बाद भी यह बात सोचने को मजबूर करती है कि झारखंड को अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए अभी और कितना वक्त चाहिए जबकि इसी के साथ बने राज्य छत्तीसगढ़ व उत्तराखंड मीलों आगे निकल गए हैं। हैरानीजनक यह है कि अति गरीब जिलों में सिंहभूम भी है जहां लौह अयस्क से लेकर सोने तक का अकूत भंडार है जिसकी बदौलत कंपनियां करोड़ों कमा रही है। सरकार महज रायल्टी से ही संतोष कर रही है और वहां की जनता अति गरीब है। सरकार को यह समझना होगा कि जब तक जल, जंगल और जमीन को ध्यान में रखकर योजनाएं नहीं बनेंगी तब तक विकास की कोई भी अवधारण बेमानी है। झारखंड में यह आजादी से लेकर जब तक मुद्दा बना हुआ है।

भ्रष्टाचार पर सरकार का रुख कड़ा है लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि योजनागत भ्रष्टाचार के कारण ही राज्य के विभिन्न जिलों में चार अरब की योजनाएं लटकी हुई है। इसी तरह भू अधिग्रहण नीति स्पष्ट न होने की वजह से छह सौ अरब की योजनाओं पर ब्रेक लगा हुआ है। सरकार को यह ध्यान में रखना होगा कि यदि वह विकास में बाधक नीतियों व नियमों में परिवर्तन नहीं करती तो लोग अपना पैसा राज्य में क्यों निवेश करेंगे और जब तक राज्य में पैसा नहीं आएगा तब तक विकास की बात तो की जा सकती है लेकिन विकास को धरातल पर नहीं उतारा जा सकता। सही तो यह होगा कि सरकार अपने आगे के कार्यकाल में इस ओर विशेष ध्यान दे तभी सहभागिता के आधार पर उसकी विकास की अवधारणा फलीभूत हो पाएगी