Thursday, December 27, 2012

संवेदनहीनता के खतरे

दिल्ली में चलती बस में युवती से सामूहिक दुष्कर्म के बाद उपजे आक्रोश की आंच की तपिश झारखंड में भी दिखाई दे रही है। कालेजों के छात्र छात्राओं एवं महिला संगठनों समेत तमाम लोग राज्य के विभिन्न शहरों में अपने -अपने ढंग से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। सबकी यही मांग है कि सामूहिक दुष्कर्म के सभी आरोपियों को फांसी की सजा दी जाय और सरकार के स्तर पर इस तरह के कदम उठाये जायें कि भविष्य में इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। टीवी चैनलों और अखबारों में भी इन दिनों दुष्कर्म की घटनायें सुर्खियां बन रही हैं। दिल्ली में सामूहिक दुष्कर्म जैसी जघन्य घटना के खिलाफ इस तरह की प्रतिक्रिया स्वाभाविक भी है। झारखंड के संगठनों को भी इसका प्रतिकार करना ही चाहिये था। लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह है कि झारखंड में जब किसी लड़की या महिला के साथ सामूहिक दुष्कर्म होता है, छेड़खानी से तंग आकर कोई लड़की आत्महत्या कर लेती है ,डायन बता कर किसी महिला की हत्या कर दी जाती है ,कालेज व स्कूल जाती हुई छात्राओं के साथ छेड़छाड़ और यौन प्रताडऩा की घटनायें होती हैं तो हमारा समाज इस तरह की संवेदनशीलता क्यों नहीं दिखाता। टीवी और अखबारों में भी ऐसी खबरें सुर्खियां क्यों नहीं बनती।       
जाहिर है हम अपने आसपास होने वाली घटनाओं को लेकर संवेदनशील नहीं है। संवेदनशील होना और किसी घटना के बाद पुलिस व प्रशासन को कोसना अलग बात है। पुलिस के आंकड़ों पर गौर करें तो झारखंड में औसतन रोज एक महिला के साथ दुराचार होता है और हर शहर में रोज छेड़खानी की घटना होती है। लेकिन हम चुप हैं। हमारी चुप्पी का ही नतीजा है कि आज लड़कियों का स्कूल आना जाना पूरी तरह सुरक्षित नहीं है । आटो रिक्शा, बसों, बाजारों व यहां तक की कार्य स्थलों तक में लड़कियों और महिलाओं के साथ छेड़छाड़  होती है और हम उसे देखकर भी अनदेखा कर देते हैं कि इससे हमें क्या लेना देना है। यह काम तो सरकार और प्रशासन का है कि वह इस पर रोक लगाये। बढ़ती संवेदनहीनता  समाज के लिये खतरनाक है। अगर हम अपने आसपास होने वाली घटनाओं से मुंह मोड़ेंगे और अपने सामाजिक दायित्वों की अनदेखी कर लोगों के सुख-दुख में साथ नहीं देंगे तो यह उम्मीद करना ही बेमानी है कि सरकार और पुलिस इन समस्याओं से निजात दिला देगी। आखिर पुलिस व सरकार में बैठे लोग भी तो इसी समाज का हिस्सा हैं जो संवेदनहीनता को अधिमान देने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रहा है। हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि समाज को पुलिस, प्रशासन व सरकार वैसी ही मिलती है जैसा वह खुद होता है। महिलाओं के साथ घृणित कार्यों को अंजाम देने वाले भी इसी समाज का हिस्सा हैं। हमें यह चुप्पी तोडऩी होगी नहीं तो इसका खामियाजा हमें हर दिन किसी न किसी क्षेत्र में, किसी न किसी रूप में भुगतना पड़ेगा ही।
यह अच्छी बात है कि गत दिवस रांची में छेड़खानी से तंग आकर एक नाबालिग छात्रा के आत्महत्या कर लेने की घटना अखबारों में प्रकाशित होने के बाद अमेरिका में अपने बच्चों का उपचार करा रहे मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने तत्काल संज्ञान लिया और राज्य के डीजीपी को इस संबंध में कदम उठाने के निर्देश दिये। बात संवेदनशीलता की है। यदि मुख्यमंत्री के स्तर पर इसे गंभीरता से नहीं लिया गया होता तो पुलिस के लिये यह घटना  महज औपचारिकता ही होती। ठीक है कि पुलिस ने मुख्यमंत्री के निर्देश के बाद राज्य भर में छेड़खानी रोकने के लिये जिलों के पुलिस अधिकारियों को जिम्मेदार व जवाबदेह ठहराया गया है और महिलाओं को शिकायत करने के लिये विशेष सेल का गठन किया है लेकिन यह व्यवस्था कब तक चुस्त दूरुस्त रहेगी यह सुनिश्चित नहीं है,क्योंकि यह पहली बार नहीं है जब सरकार के स्तर पर पुलिस को निर्देश दिये गये हैं। पहले भी हाईकोर्ट ने इस तरह के मामलों का स्वत: संज्ञान लेकर राज्य सरकार और पुलिस को उचित कदम उठाने के लिये कहा था, उसके बाद पुलिस की तत्परता दिखाई भी दी थी लेकिन फिर स्थिति जस की तस हो गई। महिलाओं के साथ छेडख़ानी और दुराचार की घटनाओं पर रोक लगाने के लिये      सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्य सरकारों को दिशा-निर्देश जारी किये थे जिसके मुताबिक सार्वजनिक परिवहन में छेडख़ानी होने पर चालक, परिचालक की जिम्मेदारी है कि वह वाहन को नजदीकी थाने में ले जाएं। ऐसा नहीं करने पर उसका परमिट रद हो। सभी सार्वजनिक स्थान, बस स्टॉप, रेलवे स्टेशन, सिनेमाघर, शॉपिंग मॉल, पूजास्थल आदि स्थानों पर सादे कपड़ों में पुलिस तैनात की जाए। महत्वपूर्ण और भीड़-भाड़ वाले स्थानों पर सीसीटीवी लगाए जाएं, ताकि अपराधी पकड़े जा सकें। तीन महीने के भीतर हर शहर और कस्बे में राज्य सरकारें महिला हेल्पलाइन स्थापित करें।  सभी शिक्षण संस्थानों तथा सिनेमाघरों आदि के प्रभारी अपने स्तर पर कदम उठाएं और शिकायत मिलने पर पुलिस को सूचित करें। लेकिन सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट के स्पष्टï निर्देशों के बावजूद झारखंड में इसका कोई असर दिखाई नहीं दे रहा है। जाहिर है  यह सब सरकार की प्राथमिकता में शामिल नहीं है और इसके लिये सरकार पर जनता का कोई दबाव भी नहीं है।
राज्य में महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े कानून इस लिये भी अप्रभावी साबित हो रहे हैं कि लोग खुद भी इसके प्रति जागरुक नहीं हैं। आवश्यकता इस बात की है कि जिस तरह से दिल्ली में हुई घटना के बाद तमाम सामाजिक व महिला संगठन एकजुट होकर आगे आ रहे हैं उसी तरह यौन प्रताडऩा की शिकार झारखंड की बेटियों के लिये भी संवेदनशीलता दिखायें। जल जंगल और जमीन के लिये लडऩे वाले लोग तपुदाना की रोशनी और उसकी जैसी लड़कियों को न्याय दिलाने के लिये भी आवाज बुलंद करें। अगर झारखंडी समाज में संवेदनहीनता ऐसी ही रही तो आने वाले दिनों में महिलाओं के साथ इस तरह की घटनायें और बढ़ेंगी और इससे निजात पाना मुश्किल होगा। सरकार को भी यह समझना होगा कि बेटियों के लिये केवल लक्ष्मी लाड़ली योजना लागू कर भर देने से वे सशक्त और स्वावलम्बी नहीं हो जायेंगी बल्कि उनके मान और सम्मान की रक्षा के लिये भी ठोस कदम उठाने होंगे।

Friday, July 13, 2012

नगड़ी पर राजनीति घातक

रांची के नगड़ी में भूमि अधिग्रहण विवाद को सुलझाने में हो रही देरी के परिणाम खतरनाक हो सकते हैं। नगड़ी में किसानों व पुलिस प्रशासन में टकराव के बाद झारखंड में जहां भी भूमि अधिग्रहण को लेकर विवाद है, वहां के ग्रामीण गोलबंद हो रहे हैं। सत्ताधारी दल हो या विपक्ष, कोई भी राजनीतिक दल हाथ आए इस मुद्दे को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। धरना, प्रदर्शन व बयानों के जरिये सभी नगड़ी के किसानों के पक्ष में खड़े दिखने की कोशिश में हैं। इस लड़ाई में सभी सरकार को खलनायक बताने में जुटे हुए हैं। झारखंड में सरकार सांझे प्रबंधन की खेती है, लेकिन इसके बावजूद सरकार में शामिल दलों के नेता और उसके मंत्री भूमि अधिग्रहण को किसानों के साथ अन्याय बता रहे हैं। नगड़ी में अधिग्रहित भूमि पर आइआइएम, ट्रिपलआइटी व ला यूनिवर्सिटी बनाने का फैसला सरकार का है। यह हैरानी जनक है कि सरकार में शामिल लोग जो इस फैसले में बराबर के भागीदार हैं, अब इसे गलत बता रहे हैं। ऐसा कर सत्ता में शामिल घटक दल अपना वोट बैंक तो बढ़ा सकते हैं, लेकिन इस तरह की राजनीति से झारखंड का भला होने वाला नहीं है। उल्टे इससे राज्य का माहौल खराब हो सकता है। उचित तो यह होगा कि सत्ताधारी दल मिलजुलकर इस समस्या का सर्वमान्य हल खोजें।

भूमि अधिग्रहण के नाम पर नगड़ी के किसानों के साथ जो हो रहा है, उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। सरकार का दावा है कि उक्त भूमि का 1957 में ही अधिग्रहण कर लिया गया था। जब आइआइएम,ट्रिपल आइटी व लॉ यूनिवर्सिटी के लिए जमीन की तलाश की जा रही थी तो यही भूमि उपयुक्त पाई गई। जमीन सरकार की थी, इसलिए उसे वह सार्वजनिक कार्य के लिए किसी को भी दे सकती है। कानूनी रूप से सरकार सही भी है। यही वजह है कि ग्रामीणों की हस्तक्षेप याचिका हाईकोर्ट ने खारिज कर दी और सुप्रीम कोर्ट ने भी मामला 50 साल से अधिक का बता कर सुनवाई से इनकार कर दिया। नगड़ी के किसान कानूनी रूप से लड़ाई भले ही हार गए हों, पर वे सरकार के इस दावे को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। वे किसी भी हालत में अपनी जमीन नहीं छोड़ने के फैसले पर अड़े हुए हैं। किसानों के इस तर्क में दम है कि 50 साल पहले जब उक्त जमीन का अधिग्रहण किया गया, उसी समय से इसका विरोध हो रहा है। विरोध स्वरूप अधिग्रहण से प्रभावित 159 रैयत परिवारों में से 128 ने मुआवजा लेने से इनकार कर दिया था। विरोध के बीच वर्षो से खाली पड़ी जमीन पर किसान खेतीबाड़ी करते रहे और उसका लगान भी अदा करते रहे, जिसकी रसीद भी उनके पास है। यह जांच का विषय है कि सरकार ने जब नियमानुसार उस समय मुआवजा न लेने वाले परिवारों की रकम ट्रेजरी में जमा करवा दी थी और जमीन पर उसका अधिकार हो गया था तो किसानों से लगान क्यों वसूला जा रहा था। यह विडम्बना ही है कि जब भी विकास के नाम पर भूमि अधिग्रहण होता है तो किसान व आदिवासी ही घाटे में रहते हैं। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि यह किस तरह का विकास है, जिसका खामियाजा उन लोगों को ही भगुतना पड़ता है, जिनकी जमीन पर विकास की नींव रखी जाती है। जल, जंगल और जमीन पर पहला हक किसानों और आदिवासियों का है। विकास के नाम पर उन्हें विस्थापित कर रोटी और रोजगार के अधिकार से वंचित कर देना किसी भी लिहाज से सही नहीं ठहराया जा सकता। यह किस तरह का विकास है, जिसमें जनता की ही सहभागिता नहीं है।

देश में सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए किसानों की भूमि अधिग्रहित करने के लिए अंग्रेजों ने 1894 में कानून बनाया था, लेकिन बीते सौ सालों में इस कानून में सरकारों के लिए भूमि के सार्वजनिक इस्तेमाल की परिभाषा बदलती रही। बीते सौ सालों में इस कदर बदलाव किए गए कि सरकार जब चाहे मनमाने ढंग से किसानों व आदिवासियों की जमीन अधिग्रहण के नाम पर छीनने लगी। यहां तक की निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए भूमि अधिग्रहण में बिचौलिये की भूमिका तक निभाने लगी। यह एक बड़ा कारण है, जिसकी वजह पिछले कुछ वर्षो से झारखंड ही नहीं, बल्कि पूरे देश में किसानों व आदिवासियों की जमीनों पर जनहित की योजनाएं चलाने को लेकर बहुत सारे विवाद हो रहे हैं। झारखंड में बीते चार दशकों से पुनर्वास के नाम पर हुए धोखे से तंग ग्रामीण अब एक इंच भी जमीन देने को तैयार नहीं हैं। पहले ही जंगल व जमीन का बड़ा हिस्सा खनन कंपनियों के हवाले हो चुका है, जिसका खामियाजा अभी तक किसान व आदिवासी भुगत रहे हैं और उससे उपजी नक्सलवाद की समस्या से राज्य जूझ रहा है। झारखंड में विस्थापन हमेशा से राजनीति का केंद्रीय सवाल रहा है। विस्थापन विरोधी राजनीति और आंदोलन का ही नतीजा है कि आज राज्य में आदिवासी मुख्यमंत्री व मंत्री हैं, लेकिन इसके बावजूद यहां के किसानों व आदिवासियों के लिए जल, जंगल और जमीन का संघर्ष अभी जारी है।

यह सही है कि विकास कार्यो, विभिन्न परियोजनाओं और संस्थाओं आदि की स्थापना के लिए सरकार को जमीन चाहिए, लेकिन इस उद्देश्य के लिए भूमि कौन सी ली जाए, किस स्थान से से ली जाए और कितना मुआवजा दिया जाए तथा विस्थापितों को कैसे बसाया जाए, इसका उचित ध्यान रखा जाना चाहिए। सरकार द्वारा इन बातों का ध्यान न रखने पर नगड़ी जैसे विवादों का उठना स्वाभाविक है। सरकार ने हाईकोर्ट की कड़ी टिप्पणी के बाद नगड़ी विवाद का निदान ढूंढने के लिए राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री मथुरा प्रसाद महतो की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित कर यह जताने की कोशिश की है कि वह मामले का हल निकालने के लिए प्रयास कर रही है, लेकिन कमेटी में जिस तरह से नौकरशाहों को जगह दी गई है, वे इस विवाद का कोई तार्किक हल निकाल पाएंगे, इसमें संशय है। यह कमेटी ज्यादा से ज्यादा ग्रामीणों से बातचीत कर केवल मुख्यमंत्री को रिपोर्ट ही सौंप सकती है। नगड़ी की समस्या का हल प्रशासनिक और कानूनी ढंग से नहीं निकाला जा सकता। इसके लिए राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर पहल करनी पड़ेगी।

सरकार यदि वास्तव में इस विवाद के हल के लिए गंभीर है तो उसे इस संबंध में मंत्रियों एवं विधायकों की समिति गठित करनी चाहिए, जो अधिकार संपन्न हो और जिसमें सभी दलों की भागीदारी सुनिश्चित हो। देखा जाए तो नगड़ी विवाद सरकार के लिए सबक है कि भविष्य में विकास की नीतियां बनाते समय यदि उसने भूमि अधिग्रहण व पुनर्वास के बीच सामंजस्य नहीं बैठाया तो झारखंड जंगल और जमीन की लड़ाई में जलता रहेगा और सत्ता में बैठे लोग अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से बच नहीं पाएंगे।

Monday, June 18, 2012

जो काम करेगा, वही जीतेगा


हटिया विधानसभा उपचुनाव के नतीजे एकबारगी अप्रत्याशित लगते हैं लेकिन करीब से देखने पर पता चलता है कि रातों-रात कोई चमत्कार नहीं हुआ। आजसू प्रत्याशी की शानदार जीत के पीछे कई संदेश छिपे हैं जिसे देखना-परखना होगा। राजनीतिक दलों खासकर राष्ट्रीय पार्टियों भाजपा व कांग्रेस को यह जेहन में रखना होगा कि सिर्फ सपने देखने-दिखाने में अब जनता का विश्वास नहीं रहा। जनता धरातल पर काम देखना चाहती है। उपचुनाव का परिणाम राज्य सरकार के काम का पैमाना माना जाता है। हटिया में सत्तापक्ष के दो प्रमुख घटक दल भाजपा और आजसू के प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे। बाजी आजसू के हाथ लगी और कभी हटिया में जीत हासिल करने वाली भाजपा तीसरे स्थान पर खिसक गई। पिछले चुनाव में जीत दर्ज करने वाली कांग्रेस की जमानत जब्त हो गई। जरा सोचिए... ऐसी स्थिति क्यों आई? जरा भाजपा कोटे के मंत्रियों के परफारमेंस पर ध्या न दीजिए। भाजपानीत गठबंधन के मुखिया मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा हैं। उन्होंने लगभग दो साल में कई विकासपरक और कल्याणकारी योजनाओं को अंजाम दिया। यह जनता के जेहन में है। भाजपा कोटे के अन्य मंत्रियों का नाम दिमाग में लाने में भी थोड़ा वक्त लगता है। इन्होंने क्या किया? सिवाय अपने विभागीय अधिकारियों से उलझने और व्यर्थ के विवादों में फंसने के। जनता अब इन चीजों को बहुत बारीकी से देखती-परखती है। सधे कदमों से आजसू का विस्तार कर रहे सुदेश महतो की कार्यप्रणाली भी किसी से छिपी नहीं है। सिर्फ हटिया की बात करें तो गांव-गांव में सुदेश महतो ने स्वयं सहायता समूहों का गठन किया है इससे लोगों का जीवन स्तर उंचा उठा तो यह समझने में देर नहीं लगी कि किसे साथ देने में क्या फायदा है। इसके अलावा गली-गली तक जब पक्की सड़के पहुंची, कदम-कदम पर चेकडैम बने तो इलाके का नक्शा बदल गया। इसका फायदा भी मिला। भाजपा के प्रत्याशी कभी राज्य सरकार में मंत्री थे लेकिन उनके खाते में उपलब्धियां नहीं थी। दल ने भी उन्हें आखिरी बार आजमाया। कांग्रेस प्रत्याशी की भी बात करें तो एक कद्दावर नेता का छोटा भाई होने के अलावा उनकी उपलब्धि कुछ विशेष नहीं थी। हटिया में भाजपा- कांग्रेस की करारी हार और क्षेत्रीय दलों आजसू का पहले और झाविमो का दूसरे स्थान पर रहना राष्ट्रीय दलों के लिए खतरे की घंटी है। जमशेदपुर संसदीय उपचुनाव, मांडू और हटिया विधानसभा के उपचुनाव यह तस्दीक करते हैं कि झारखंड में क्षेत्रीय दल मजबूती के साथ उभर रहे हैं। झारखंड में बाबूलाल मरांडी, सुदेश महतो और हेमंत सोरेन का क्षेत्रीय क्षत्रप के रूप में तेजी से उदय हो रहा है। मतदाताओं ने कांग्र्रेस और भाजपा को खारिज करना शुरू कर दिया है। क्षेत्रीय दलों के उभार का एक प्रमुख कारण यह भी है कि राष्ट्रीमय दलों द्वारा आम जनता के हितों की उपेक्षा करने की प्रवृत्ति बढ रही है। ऐसे में जनता क्षेत्रीय मुद़्दों को उठाने वाले राजनीतिक दलों पर ज्याकदा भरोसा करने लगी है।

झारखंड में भाजपा के नेतृत्व में गठबंधन की सरकार चल रही है। हटिया का परिणाम संकेत दे रहा है कि यह देरसवेर राजनीतिक संकट बढ़ाएगा। मजबूत हो रहे दलों की महत्वाकांक्षा इस आग में घी का काम करेगी। इससे क्षेत्रीय दलों (झामुमो-आजसू) के बीच चुनावी गठबंधन का भी दौर शुरू हो सकता है। राज्यसभा चुनाव के दौरान यह प्रयोग हो चुका है। पहले यह संभावना थी कि झामुमो हटिया में आजसू को समर्थन की घोषणा करेगा लेकिन अंतिम वक्त में झामुमो ने तटस्थ रहने का ऐलान किया। यह रणनीति भी एक मायने में झामुमो के पाले में गई। देश में बढ़ते क्षेत्रीय क्षत्रपों के दबदबे के बीच झारखंड में भी स्थानीय नेताओं का कद उंचा हो रहा है। झारखंड में जिस तरह से सामाजिक चेतना का विस्ताभर हो रहा है और हर साल नए मतदाताओं की जो नई खेप आ रही है, वह पुराने पैमानों और नियमों से बंधा हुआ नहीं है। उसके अपने पैमाने होते हैं, जिसका अनुमान राष्ट्रीय पार्टियां ही नहीं लगा पाई तो पंजाब व बिहार की तर्ज पर झारखंड में भी राष्ट्रीय दल क्षेत्रीय पार्टियों की 'बी टीम बनने को मजबूर होंगे।

Wednesday, May 23, 2012

भाजपा की हार पर बची सरकार

झारखंड में भाजपानीत गठबंधन सरकार चल रही है लेकिन राज्यसभा चुनाव में भाजपा के प्रत्याशी एसएस अहलूवालिया ही चुनाव हार गए। इससे अब यह पूरी तरह साफ हो गया है कि सत्ताधारी गठबंधन दल सरकार तो चला रहे हैं पर वे साथ नहीं हैं। जाहिर है गठबंधन मजबूरी का है और उसकी गांठें इतनी कमजोर हैं कि जैसे ही कोई दलीय हित सामने आता है एक-एक कर खुलने लगती हैं। वैसे भाजपा आलाकमान के लिए भले ही अहलूवालिया की हार बड़ा झटका हो लेकिन इस महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रम से राज्य की सत्ता पर काबिज भाजपा नेता राहत की सांस ले सकते हैं कि मुश्किल में फंसी सरकार बच गई। हालांकि यह संकट सिर्फ फौरी तौर पर ही टला है लिहाजा भाजपा को भी यह सोचना होगा कि आखिरकार ऐसी स्थिति आई कैसे? शुरू से ही भाजपा के साथ कदमताल कर रही आजसू के विधायक झामुमो के साथ मजबूती से खड़े हो गए। आजसू के समर्थन से गदगद झामुमो ने एक कदम आगे बढ़कर यहां तक कह दिया कि आने वाले दिनों में हटिया विधानसभा चुनाव तो क्या, अब दोनों दल मिलकर अपने गठबंधन का पूरे राज्य में विस्तार करेंगे। तस्वीर साफ है, यानी दोनों दल एक साथ मिलकर चुनाव मैदान में उतर सकते हैं। यह राजनीतिक साझेदारी कही न कही भाजपा को ही देरसवेर नुकसान पहुंचाएगी। भाजपा के पास जीत के पर्याप्त आंकड़े नहीं थे। हाईकमान को इस बात की आशा थी कि पार्टी के प्रबंधक जीत के लिए आवश्यक वोट जुटा लेंगे लेकिन दल के रणनीतिकार इसमें असफल रहे। वैसे देख जाए तो अगर परिणाम उल्टा होता यानी भाजपा जीत जाती और झामुमो को हार का सामना करना पड़ता तो झारखंड की भाजपा सरकार पर संकट तय था। वैसे भी राजनीतिक अस्थिरता झारखंड की नियति रही है। शासन तंत्र का ज्यादा वक्त सत्ता को बरकरार रखने में जाया होता है।


वैसे राज्यसभा चुनाव के कारण झामुमो व भाजपा में खटास पैदा हुई है। लेकिन भाजपा के लिए यह आत्मचिंतन का विषय होगा कि आजसू ने किन वजहों से झामुमो को समर्थन किया, भाजपा के चुनाव प्रबंधक क्यों तीन-चार अतिरिक्त मतों का जुगाड़ नहीं कर पाए? सरकार को समर्थन दे रहे दो निर्दलीय विधायकों ने किस स्थिति में कांग्र्रेस के प्रत्याशी को समर्थन दिया। राज्यसभा चुनाव झारखंड की मुंडा सरकार का लिटमस टेस्ट था। आगे हटिया में भी विधानसभा उपचुनाव होना है। हटिया की पृष्ठभूमि भी कुछ ऐसी ही है। अगर भाजपानीत गठबंधन सरकार के घटक दल संभलकर नहीं चले तो सरकार मुश्किल में पड़ेगी। राज्यसभा चुनाव में हार से भाजपा को सबक लेने की जरूरत है। सबक यह है कि संभलकर और तालमेल बनाकर नहीं चले तो विपक्ष भविष्य में और हावी होगा, जिसका असर आखिरकार सरकार पर ही पडऩे वाला है।

बहरहाल कांग्रेस ने झाविमो विधायकों के मतदान न करने के बावजूद जिस तरह से निर्दलीय विधायकों को अपने पाले में साधा कर राज्य सभा की यह सीट जीती हैै उससे साबित हो जाता है कि मौका आने पर वह सत्ता के लिए भी जोड़तोड़ में पीछे नहीं रहेगी।

Tuesday, May 8, 2012

जहां हिन्दू अल्पसंख्यक, वहां अत्याचार

सर्वधर्म समभाव और वसुधैव कुटुंबकम् को जीवन का आधार मानने वाले हिन्दुओं की स्थिति उन देशों में काफी बदतर है जहां वे अल्पसंख्यक हैं। भारत से बाहर रह रहे हिन्दुओं की आबादी लगभग 20 करोड़ है जिसमें सबसे ज्यादा खराब स्थिति दक्षिण एशिया के देशों में रह रहे हिन्दुओं की है।  बांग्लादेश, भूटान, फिजी, मलेशिया, पाकिस्तान, श्रीलंका और त्रिनिदाद-टौबेगो में हाल के वर्षों में हिन्दू अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचार के मामले बढ़े हैं। इसमें जबरन धर्मान्तरण, यौन उत्पीडऩ, धार्मिक स्थलों पर आक्रमण, सामाजिक भेदभाव, संपत्ति हड़पना आदि शामिल है। इसमें कुछ देशों में राजनीतिक स्तर पर भी हिन्दुओं के साथ भेदभाव की शिकायतें सामने आई है। हिन्दू अमेरिकन फाउंडेशन की आठवीं वार्षिक मानवाधिकार रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है। यह रिपोर्ट 2011 की है जिसे हाल ही में जारी किया गया है।

रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तान में 1947 में कुल आबादी का 25 प्रतिशत हिन्दू थे। अभी इनकी जनसंख्या कुल आबादी का मात्र 1.6 प्रतिशत रह गई है। गैर-मुस्लिमों के साथ यहां दोयम दर्जे का व्यवहार हो रहा है। 24 मार्च 2005 को पाकिस्तान में नए पासपोर्ट में धर्म की पहचान को अनिवार्य कर दिया गया। स्कूलों में इस्लाम की शिक्षा दी जाती है। गैर-मुस्लिम खासकर हिन्दुओं के साथ असहिष्णु व्यवहार किया जाता है। जनजातीय बहुल इलाकों में अत्याचार ज्यादा है। यहां पाकिस्तान पर इस्लामिक कानून लागू करने का भारी दबाव है। हिन्दू युवतियों और महिलाओं के साथ बलात्कार, अपहरण की घटनाएं आम है। उन्हें इस्लामिक मदरसों में रखकर जबरन धर्मान्तरण का दबाव दिया जाता है। गरीब हिन्दू तबका बंधुआ मजदूर की तरह जीने को मजबूर है। इसी तरह भारत के हस्तक्षेप से अस्तित्व में आए बांग्लादेश में भी हिन्दुओं पर अत्याचार के मामले में तेजी से बढ़े हैं। बांग्लादेश ने वेस्टेड प्रापर्टीज रिटर्न (एमेंडमेंट) बिल 2011 को लागू किया है जिसमें जब्त की गई या मुसलमानों द्वारा कब्जा की गई हिन्दुओं की जमीन को वापस लेने के लिए क्लेम करने का अधिकार नहीं है। इस बिल के पारित होने के बाद हिन्दुओं की जमीन कब्जा करने की प्रवृति बढ़ी है और इसे सरकारी संरक्षण भी मिल रहा है। इसका विरोध करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों पर भी जुल्म ढाए जाते हैं। इसके अलावा इस्लामी कïट्टरपंथियों के निशाने पर हिन्दुओं की आबादी है। इनके साथ मारपीट, बलात्कार, अपहरण, जबरन धर्मान्तरण, मंदिरों में तोडफ़ोड़ और शारीरिक उत्पीडऩ आम बात है। अगर यह जारी रहा तो अगले 25 वर्षों में बांग्लादेश में हिन्दुओं की आबादी ही समाप्त हो जाएगी।

बहु-धार्मिक, बहु-सांस्कृतिक और बहुभाषी देश कहे जाने वाले भूटान में भी हिन्दुओं के खिलाफ अत्याचार हो रहा है। 1990 के दशक में दक्षिण और पूर्वी इलाके से एक लाख हिन्दू अल्पसंख्यकों और नियंगमापा बौद्धों को बेदखल कर दिया गया। ईसाई बहुल देश फिजी में हिन्दुओं की आबादी 34 प्रतिशत है। यहां रहने वाले हिन्दुओं को हमेशा घृणास्पद भाषणों का सामना करना पड़ता है। 2008 में यहां कई हिन्दू मंदिरों को निशाना बनाया गया। 2009 में ये हमले बंद हुए। फिजी के मेथोडिस्ट चर्च ने लगातार इसे इसाई देश घोषित करने की मांग की लेकिन बैमानिरामा के प्रधानमंत्रित्व में गठित अंतरिम सरकार ने इसे खारिज कर दिया और अल्पसंख्यकों खासकर हिन्दुओं के संरक्षण की बात कही। मलेशिया घोषित इस्लामी देश है इस लिए यहां की हिन्दू आबादी को अक्सर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थानों को यहां अक्सर निशाना बनाया जाता है। सरकार मस्जिदों को सरकारी जमीन और मदद मुहैया कराती है लेकिन हिन्दू धार्मिक स्थानों के साथ इस नीति को अमल में नहीं लाती। हिन्दू कार्यकर्ताओं पर तरह-तरह के जुल्म ढाए जाते हैं और उन्हें कानूनी मामलों में जबरन फंसाया जाता है। उन्हें शरिया अदालतों में पेश किया जाता है जहां अदालतों के आदेश को मानने के लिए दबाव बनाया जाता है।

सिंहली बहुल आबादी वाले श्रीलंका में हिन्दुओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है। पिछले कई दशक से हिन्दू और तमिल आबादी खतरे का शिकार है। हिंसा के कारण उन्हें लगातार पलायन का दंश झेलना पड़ रहा है। हिन्दू संस्थानों को सरकारी संरक्षण नहीं मिलता है। त्रिनिदाद-टोबैगो में भारतीय मूल की कमला परसाद बिसेसर के सत्ता संभालने के बाद आशा बंधी है कि हिन्दुओं के साथ साठ दशकों से होता आ रहा अत्याचार समाप्त होगा। यहां की अधिकांश आबादी हिन्दू इंडो -त्रिनिदादियंस और एफ्रो-त्रिनिदादियंस की है। रोमन कैथालिक और हिन्दू बड़े समूह में हैं। हिन्दुओं को लगातार आक्रमण झेलना पड़ता है। इसके अलावा घृणास्पद भाषण और हिंसा का शिकार होना पड़ता है। इंडो -त्रिनिदादियंस समूह सरकारी नौकरियों और अन्य सरकारी सहायता से वंचित है। हिन्दू संस्थाओं के साथ और हिन्दू त्योहारों के दौरान हिंसा होती है।

हिन्दू अमेरिकन फाउंडेशन की आठवीं वार्षिक मानवाधिकार रिपोर्ट में जम्मू-कश्मीर में हिन्दुओं के खिलाफ हो रहे अत्याचार का भी जिक्र है। पाकिस्तान ने कश्मीर के 35 फीसदी भू-भाग पर अवैध तरीके से कब्जा कर रखा है। कुछ भाग चीन के हिस्से में तो अन्य हिस्सा भारत के पास है। 1980 के दशक से यहां पाकिस्तान समर्थित आतंकी सक्रिय हैं। कश्मीर घाटी से अधिकांश हिन्दू आबादी का पलायन हो चुका है। तीन लाख से ज्यादा कश्मीरी हिन्दू अपने ही देश में शरणार्थी के तौर पर रह रहे हैं। कश्मीरी पंडित रिफ्यूजी कैंप में बदतर स्थिति में रहने को मजबूर हैं।

यह चिंता की बात है कि दक्षिण एशिया में रह रहे हिंदुओं पर अत्यासचार के मामले लगातार बढ रहे हैं लेकिन चंद मानवाधिकार संगठनों की बात बात छोड दें तो वहां रह रहें हिंदुओं के हितों की रक्षा के लिए आवाज उठाने वाला कोई नहीं है। जिस तरह से श्रीलंका में तमिलों के मानवाधिकार हनन के मुद्दे पर अमेरिका,फ्रांस और नार्वे ने संयुक्त राष्ट्रय मानवाधिकार आयोग में प्रस्ताीव रखा और तमिल राजनीतिक दलों के दबाव में ही सही भारत को प्रस्तािव के पक्ष मंन वोट डालना पडा, इस तरह की पहल भारत को भी दक्षेस के मंच पर तो करनी ही करनी चाहिए।

Friday, March 30, 2012

जो तटस्‍थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध

दिल्ली समेत दूसरे राज्यों में झारखंड को 'कमीशनखंडÓ के नाम से क्यों जाना जाता है, शुक्रवार को रांची के समीप एक प्रत्याशी के नजदीकी लोगों के पास से करोड़ों की नकदी जब्त होने के प्रकरण ने इसे और पुख्ता कर दिया। इस घटना से उस झारखंड का नाम फिर पूरे देश में दलाली-घूस-रिश्वतखोरी के लिए बदनाम हुआ जहां के 24 में से 22 जिलों में नक्सलियों की समानांतर सत्ता चलती है। आधी से ज्यादा आबादी दो जून की रोटी के लिए मशक्कत करती है। ग्र्रामीण इलाकों में पीने का पानी और बिजली सपने के समान हैं। क्या मिला इन 11 सालों में झारखंड को, शायद बदनामी और जिल्लत के सिवाय कुछ नहीं। राज्यसभा चुनाव को लेकर राज्य मंडी के रूप में मशहूर हुआ। पहले भी कई लोग धन और प्रभाव का प्रयोग कर यहां से चुनकर उच्च सदन में जाते रहे हैं लेकिन इस बार तमाम मर्यादाएं तार-तार हो गई। जिस तरह एक निर्दलीय आए और दो-तीन दिनों में ही अपना सा मुंह लेकर वापस हो गए। बाद में सूटकेस-कार के किस्से, महंगी ऑडी गाड़ी बांटने की अटकलें। कोलकाता में विधायकों की मंडी संजने की खबर झारखंड की दामन में लगा ऐसा दाग है जिसे धोया नहीं जा सकता। देश-दुनिया में हमारी बदनामी हो रही है। भगवान बिरसा की धरती, परमवीर अलबर्ट एक्का की कुर्बानी हमारी विरासत है। झारखंड की धरती रत्नगर्भा है। यहां की खनिज देश-दुनिया में समृद्धि ला रही है लेकिन क्या हम माथे पर बदनामी का दाग लिए घूमते फिरेंगे। राज्यसभा में भी इस पर चिंता जताई गई है। शुक्रवार को उच्च सदन के सदस्यों ने एकमत से झारखंड में थैलीशाहों की राज्यसभा में आने की कवायद का विरोध किया। शर्म की बात है, बड़ा भाई बिहार करवटें ले रहा है और उसी की कोख से जन्मा झारखंड बदनामी की नई ईबारतें दिन-ब-दिन गढ़ता जा रहा है। इस कालिख को पोछकर फेंकना समय की जरूरत है। थैलीशाह उच्च सदन में जाकर क्या करेंगे, झारखंड को कैसा मैसेज देंगे यह समझा जा सकता है। पैसे की लय-ताल पर नाचती झारखंड की राजनीति कहां जाकर रूकेगी, यह मनन का विषय है। क्या हम ऐसे ही जिल्लत की नजरों से देखे जाते रहेंगे? सवाल आपके सामने है। इसका उत्तर भी आपको ही देना होगा। 11 साल में हमारे खाते में बदनामियों के सिवाय कुछ दर्ज नहीं हुआ। क्या इसी के बल पर हमारी राजनीति आगे बढ़ेगी? एक विधायक ने वोट बहिष्कार की घोषणा भारी मन से की। वे नहीं चाहते थे कि पैसा पाने की अंधी दौड़ में अपना जमीर बेच दें। अब फैसला आपकी अदालत में है। सच्चाई भी सामने है। आपके हाथ में भी जब मौका आएगा तो जिन्हें जिताकर भेजा है उनसे यह पूछना मत भूलिएगा कि क्या यही दिन देखने के लिए उन्हें राज्य की सबसे बड़ी पंचायत में भेजा था। याद रखिए फैसला आपको करना है कि क्या इसी लीक पर झारखंड की राजनीति चलेगी। जिन्होंने नोट लेकर अपने वोट बेचे उन्हें पहचानिए नहीं तो समय आपको भी माफ नहीं करेगा। अगली बार चुनाव में ऐसी पटखनी दीजिए कि आने वाले दिनों में नोट लेकर अपना जमीर बेचने के पहले कोई सौ बार सोचे। आपको अपनी भूमिका तय करनी होगी। इस बात की गंभीरता को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी की इस कविता से समझा जा सकता है, समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल व्याध्र, जो तटस्थ है समय लिखेगा उसका भी अपराध...।