Friday, July 13, 2012

नगड़ी पर राजनीति घातक

रांची के नगड़ी में भूमि अधिग्रहण विवाद को सुलझाने में हो रही देरी के परिणाम खतरनाक हो सकते हैं। नगड़ी में किसानों व पुलिस प्रशासन में टकराव के बाद झारखंड में जहां भी भूमि अधिग्रहण को लेकर विवाद है, वहां के ग्रामीण गोलबंद हो रहे हैं। सत्ताधारी दल हो या विपक्ष, कोई भी राजनीतिक दल हाथ आए इस मुद्दे को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। धरना, प्रदर्शन व बयानों के जरिये सभी नगड़ी के किसानों के पक्ष में खड़े दिखने की कोशिश में हैं। इस लड़ाई में सभी सरकार को खलनायक बताने में जुटे हुए हैं। झारखंड में सरकार सांझे प्रबंधन की खेती है, लेकिन इसके बावजूद सरकार में शामिल दलों के नेता और उसके मंत्री भूमि अधिग्रहण को किसानों के साथ अन्याय बता रहे हैं। नगड़ी में अधिग्रहित भूमि पर आइआइएम, ट्रिपलआइटी व ला यूनिवर्सिटी बनाने का फैसला सरकार का है। यह हैरानी जनक है कि सरकार में शामिल लोग जो इस फैसले में बराबर के भागीदार हैं, अब इसे गलत बता रहे हैं। ऐसा कर सत्ता में शामिल घटक दल अपना वोट बैंक तो बढ़ा सकते हैं, लेकिन इस तरह की राजनीति से झारखंड का भला होने वाला नहीं है। उल्टे इससे राज्य का माहौल खराब हो सकता है। उचित तो यह होगा कि सत्ताधारी दल मिलजुलकर इस समस्या का सर्वमान्य हल खोजें।

भूमि अधिग्रहण के नाम पर नगड़ी के किसानों के साथ जो हो रहा है, उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। सरकार का दावा है कि उक्त भूमि का 1957 में ही अधिग्रहण कर लिया गया था। जब आइआइएम,ट्रिपल आइटी व लॉ यूनिवर्सिटी के लिए जमीन की तलाश की जा रही थी तो यही भूमि उपयुक्त पाई गई। जमीन सरकार की थी, इसलिए उसे वह सार्वजनिक कार्य के लिए किसी को भी दे सकती है। कानूनी रूप से सरकार सही भी है। यही वजह है कि ग्रामीणों की हस्तक्षेप याचिका हाईकोर्ट ने खारिज कर दी और सुप्रीम कोर्ट ने भी मामला 50 साल से अधिक का बता कर सुनवाई से इनकार कर दिया। नगड़ी के किसान कानूनी रूप से लड़ाई भले ही हार गए हों, पर वे सरकार के इस दावे को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। वे किसी भी हालत में अपनी जमीन नहीं छोड़ने के फैसले पर अड़े हुए हैं। किसानों के इस तर्क में दम है कि 50 साल पहले जब उक्त जमीन का अधिग्रहण किया गया, उसी समय से इसका विरोध हो रहा है। विरोध स्वरूप अधिग्रहण से प्रभावित 159 रैयत परिवारों में से 128 ने मुआवजा लेने से इनकार कर दिया था। विरोध के बीच वर्षो से खाली पड़ी जमीन पर किसान खेतीबाड़ी करते रहे और उसका लगान भी अदा करते रहे, जिसकी रसीद भी उनके पास है। यह जांच का विषय है कि सरकार ने जब नियमानुसार उस समय मुआवजा न लेने वाले परिवारों की रकम ट्रेजरी में जमा करवा दी थी और जमीन पर उसका अधिकार हो गया था तो किसानों से लगान क्यों वसूला जा रहा था। यह विडम्बना ही है कि जब भी विकास के नाम पर भूमि अधिग्रहण होता है तो किसान व आदिवासी ही घाटे में रहते हैं। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि यह किस तरह का विकास है, जिसका खामियाजा उन लोगों को ही भगुतना पड़ता है, जिनकी जमीन पर विकास की नींव रखी जाती है। जल, जंगल और जमीन पर पहला हक किसानों और आदिवासियों का है। विकास के नाम पर उन्हें विस्थापित कर रोटी और रोजगार के अधिकार से वंचित कर देना किसी भी लिहाज से सही नहीं ठहराया जा सकता। यह किस तरह का विकास है, जिसमें जनता की ही सहभागिता नहीं है।

देश में सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए किसानों की भूमि अधिग्रहित करने के लिए अंग्रेजों ने 1894 में कानून बनाया था, लेकिन बीते सौ सालों में इस कानून में सरकारों के लिए भूमि के सार्वजनिक इस्तेमाल की परिभाषा बदलती रही। बीते सौ सालों में इस कदर बदलाव किए गए कि सरकार जब चाहे मनमाने ढंग से किसानों व आदिवासियों की जमीन अधिग्रहण के नाम पर छीनने लगी। यहां तक की निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए भूमि अधिग्रहण में बिचौलिये की भूमिका तक निभाने लगी। यह एक बड़ा कारण है, जिसकी वजह पिछले कुछ वर्षो से झारखंड ही नहीं, बल्कि पूरे देश में किसानों व आदिवासियों की जमीनों पर जनहित की योजनाएं चलाने को लेकर बहुत सारे विवाद हो रहे हैं। झारखंड में बीते चार दशकों से पुनर्वास के नाम पर हुए धोखे से तंग ग्रामीण अब एक इंच भी जमीन देने को तैयार नहीं हैं। पहले ही जंगल व जमीन का बड़ा हिस्सा खनन कंपनियों के हवाले हो चुका है, जिसका खामियाजा अभी तक किसान व आदिवासी भुगत रहे हैं और उससे उपजी नक्सलवाद की समस्या से राज्य जूझ रहा है। झारखंड में विस्थापन हमेशा से राजनीति का केंद्रीय सवाल रहा है। विस्थापन विरोधी राजनीति और आंदोलन का ही नतीजा है कि आज राज्य में आदिवासी मुख्यमंत्री व मंत्री हैं, लेकिन इसके बावजूद यहां के किसानों व आदिवासियों के लिए जल, जंगल और जमीन का संघर्ष अभी जारी है।

यह सही है कि विकास कार्यो, विभिन्न परियोजनाओं और संस्थाओं आदि की स्थापना के लिए सरकार को जमीन चाहिए, लेकिन इस उद्देश्य के लिए भूमि कौन सी ली जाए, किस स्थान से से ली जाए और कितना मुआवजा दिया जाए तथा विस्थापितों को कैसे बसाया जाए, इसका उचित ध्यान रखा जाना चाहिए। सरकार द्वारा इन बातों का ध्यान न रखने पर नगड़ी जैसे विवादों का उठना स्वाभाविक है। सरकार ने हाईकोर्ट की कड़ी टिप्पणी के बाद नगड़ी विवाद का निदान ढूंढने के लिए राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री मथुरा प्रसाद महतो की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित कर यह जताने की कोशिश की है कि वह मामले का हल निकालने के लिए प्रयास कर रही है, लेकिन कमेटी में जिस तरह से नौकरशाहों को जगह दी गई है, वे इस विवाद का कोई तार्किक हल निकाल पाएंगे, इसमें संशय है। यह कमेटी ज्यादा से ज्यादा ग्रामीणों से बातचीत कर केवल मुख्यमंत्री को रिपोर्ट ही सौंप सकती है। नगड़ी की समस्या का हल प्रशासनिक और कानूनी ढंग से नहीं निकाला जा सकता। इसके लिए राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर पहल करनी पड़ेगी।

सरकार यदि वास्तव में इस विवाद के हल के लिए गंभीर है तो उसे इस संबंध में मंत्रियों एवं विधायकों की समिति गठित करनी चाहिए, जो अधिकार संपन्न हो और जिसमें सभी दलों की भागीदारी सुनिश्चित हो। देखा जाए तो नगड़ी विवाद सरकार के लिए सबक है कि भविष्य में विकास की नीतियां बनाते समय यदि उसने भूमि अधिग्रहण व पुनर्वास के बीच सामंजस्य नहीं बैठाया तो झारखंड जंगल और जमीन की लड़ाई में जलता रहेगा और सत्ता में बैठे लोग अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से बच नहीं पाएंगे।