Thursday, December 27, 2012

संवेदनहीनता के खतरे

दिल्ली में चलती बस में युवती से सामूहिक दुष्कर्म के बाद उपजे आक्रोश की आंच की तपिश झारखंड में भी दिखाई दे रही है। कालेजों के छात्र छात्राओं एवं महिला संगठनों समेत तमाम लोग राज्य के विभिन्न शहरों में अपने -अपने ढंग से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। सबकी यही मांग है कि सामूहिक दुष्कर्म के सभी आरोपियों को फांसी की सजा दी जाय और सरकार के स्तर पर इस तरह के कदम उठाये जायें कि भविष्य में इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। टीवी चैनलों और अखबारों में भी इन दिनों दुष्कर्म की घटनायें सुर्खियां बन रही हैं। दिल्ली में सामूहिक दुष्कर्म जैसी जघन्य घटना के खिलाफ इस तरह की प्रतिक्रिया स्वाभाविक भी है। झारखंड के संगठनों को भी इसका प्रतिकार करना ही चाहिये था। लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह है कि झारखंड में जब किसी लड़की या महिला के साथ सामूहिक दुष्कर्म होता है, छेड़खानी से तंग आकर कोई लड़की आत्महत्या कर लेती है ,डायन बता कर किसी महिला की हत्या कर दी जाती है ,कालेज व स्कूल जाती हुई छात्राओं के साथ छेड़छाड़ और यौन प्रताडऩा की घटनायें होती हैं तो हमारा समाज इस तरह की संवेदनशीलता क्यों नहीं दिखाता। टीवी और अखबारों में भी ऐसी खबरें सुर्खियां क्यों नहीं बनती।       
जाहिर है हम अपने आसपास होने वाली घटनाओं को लेकर संवेदनशील नहीं है। संवेदनशील होना और किसी घटना के बाद पुलिस व प्रशासन को कोसना अलग बात है। पुलिस के आंकड़ों पर गौर करें तो झारखंड में औसतन रोज एक महिला के साथ दुराचार होता है और हर शहर में रोज छेड़खानी की घटना होती है। लेकिन हम चुप हैं। हमारी चुप्पी का ही नतीजा है कि आज लड़कियों का स्कूल आना जाना पूरी तरह सुरक्षित नहीं है । आटो रिक्शा, बसों, बाजारों व यहां तक की कार्य स्थलों तक में लड़कियों और महिलाओं के साथ छेड़छाड़  होती है और हम उसे देखकर भी अनदेखा कर देते हैं कि इससे हमें क्या लेना देना है। यह काम तो सरकार और प्रशासन का है कि वह इस पर रोक लगाये। बढ़ती संवेदनहीनता  समाज के लिये खतरनाक है। अगर हम अपने आसपास होने वाली घटनाओं से मुंह मोड़ेंगे और अपने सामाजिक दायित्वों की अनदेखी कर लोगों के सुख-दुख में साथ नहीं देंगे तो यह उम्मीद करना ही बेमानी है कि सरकार और पुलिस इन समस्याओं से निजात दिला देगी। आखिर पुलिस व सरकार में बैठे लोग भी तो इसी समाज का हिस्सा हैं जो संवेदनहीनता को अधिमान देने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रहा है। हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि समाज को पुलिस, प्रशासन व सरकार वैसी ही मिलती है जैसा वह खुद होता है। महिलाओं के साथ घृणित कार्यों को अंजाम देने वाले भी इसी समाज का हिस्सा हैं। हमें यह चुप्पी तोडऩी होगी नहीं तो इसका खामियाजा हमें हर दिन किसी न किसी क्षेत्र में, किसी न किसी रूप में भुगतना पड़ेगा ही।
यह अच्छी बात है कि गत दिवस रांची में छेड़खानी से तंग आकर एक नाबालिग छात्रा के आत्महत्या कर लेने की घटना अखबारों में प्रकाशित होने के बाद अमेरिका में अपने बच्चों का उपचार करा रहे मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने तत्काल संज्ञान लिया और राज्य के डीजीपी को इस संबंध में कदम उठाने के निर्देश दिये। बात संवेदनशीलता की है। यदि मुख्यमंत्री के स्तर पर इसे गंभीरता से नहीं लिया गया होता तो पुलिस के लिये यह घटना  महज औपचारिकता ही होती। ठीक है कि पुलिस ने मुख्यमंत्री के निर्देश के बाद राज्य भर में छेड़खानी रोकने के लिये जिलों के पुलिस अधिकारियों को जिम्मेदार व जवाबदेह ठहराया गया है और महिलाओं को शिकायत करने के लिये विशेष सेल का गठन किया है लेकिन यह व्यवस्था कब तक चुस्त दूरुस्त रहेगी यह सुनिश्चित नहीं है,क्योंकि यह पहली बार नहीं है जब सरकार के स्तर पर पुलिस को निर्देश दिये गये हैं। पहले भी हाईकोर्ट ने इस तरह के मामलों का स्वत: संज्ञान लेकर राज्य सरकार और पुलिस को उचित कदम उठाने के लिये कहा था, उसके बाद पुलिस की तत्परता दिखाई भी दी थी लेकिन फिर स्थिति जस की तस हो गई। महिलाओं के साथ छेडख़ानी और दुराचार की घटनाओं पर रोक लगाने के लिये      सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्य सरकारों को दिशा-निर्देश जारी किये थे जिसके मुताबिक सार्वजनिक परिवहन में छेडख़ानी होने पर चालक, परिचालक की जिम्मेदारी है कि वह वाहन को नजदीकी थाने में ले जाएं। ऐसा नहीं करने पर उसका परमिट रद हो। सभी सार्वजनिक स्थान, बस स्टॉप, रेलवे स्टेशन, सिनेमाघर, शॉपिंग मॉल, पूजास्थल आदि स्थानों पर सादे कपड़ों में पुलिस तैनात की जाए। महत्वपूर्ण और भीड़-भाड़ वाले स्थानों पर सीसीटीवी लगाए जाएं, ताकि अपराधी पकड़े जा सकें। तीन महीने के भीतर हर शहर और कस्बे में राज्य सरकारें महिला हेल्पलाइन स्थापित करें।  सभी शिक्षण संस्थानों तथा सिनेमाघरों आदि के प्रभारी अपने स्तर पर कदम उठाएं और शिकायत मिलने पर पुलिस को सूचित करें। लेकिन सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट के स्पष्टï निर्देशों के बावजूद झारखंड में इसका कोई असर दिखाई नहीं दे रहा है। जाहिर है  यह सब सरकार की प्राथमिकता में शामिल नहीं है और इसके लिये सरकार पर जनता का कोई दबाव भी नहीं है।
राज्य में महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े कानून इस लिये भी अप्रभावी साबित हो रहे हैं कि लोग खुद भी इसके प्रति जागरुक नहीं हैं। आवश्यकता इस बात की है कि जिस तरह से दिल्ली में हुई घटना के बाद तमाम सामाजिक व महिला संगठन एकजुट होकर आगे आ रहे हैं उसी तरह यौन प्रताडऩा की शिकार झारखंड की बेटियों के लिये भी संवेदनशीलता दिखायें। जल जंगल और जमीन के लिये लडऩे वाले लोग तपुदाना की रोशनी और उसकी जैसी लड़कियों को न्याय दिलाने के लिये भी आवाज बुलंद करें। अगर झारखंडी समाज में संवेदनहीनता ऐसी ही रही तो आने वाले दिनों में महिलाओं के साथ इस तरह की घटनायें और बढ़ेंगी और इससे निजात पाना मुश्किल होगा। सरकार को भी यह समझना होगा कि बेटियों के लिये केवल लक्ष्मी लाड़ली योजना लागू कर भर देने से वे सशक्त और स्वावलम्बी नहीं हो जायेंगी बल्कि उनके मान और सम्मान की रक्षा के लिये भी ठोस कदम उठाने होंगे।