Wednesday, January 30, 2013

बदलना होगा समाज को

 दिल्ली में सामूहिक दुष्कर्म की शिकार युवती की सिंगापुर के अस्पताल में मौत की घटना ने देश को हिला कर रख दिया है। जिस लड़की की मौत हुई है भले ही किसी ने उसका चेहरा न देखा हो और नाम भी नहीं जानते हैं लेकिन पूरे देश में शोक की लहर है। सबका मन व्यथित है। ऐसा लगता है मानों अपनी ही कोई बहन बेटी थी जो जिंदगी की जंग हार गई। इस घटना ने हमारी अंतरआत्मा के साथ ही समूचे देश की सामूहिक चेतना को भी झकझोर कर रख दिया है। पहले कभी ऐसा देखने में नहीं आया। जिस तरह से पूरा देश श्रद्धांजलि दे रहा है लगता है कि उसकी मौत महिलाओं के आपराधिक कृत्यों को अंजाम देने वालों के खिलाफ एक युद्धघोष है। एक शहादत है जो इस बात के लिये प्रेरित कर रही है कि हमें इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिये एकजुट होकर लडऩा ही होगा नहीं तो आज जो कुछ हुआ है कल वह हमारी बहनों और बेटियों के साथ भी हो सकता है।   महिलाओं की सुरक्षा व सम्मान के लिये जो मशाल जली है बुझनी नही चाहिये। वक्त आ गया है कि महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा की इस लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया जाये। हमें बदलना ही होगा। समाज को महिलाओं का सम्मान करना सीखना ही होगा नहीं तो इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति होती रहेगी और हम लकीर पीटने के अलाव कुछ नहीं कर पायेंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं के प्रति लोगों का नजरिया दोयम दर्जे का है। हम महिलाओं को बराबरी का सम्मान देने की बात तो करते हैं लेकिन उस पर अमल नहीं करते। प्राचीन काल से लेकर आज तक हमारे देश की इस आधी आबादी ने कई बदलावों का सामना किया है। बहुत कुछ बदला भी है। आज महिलायें हर क्षेत्र में पुरुषों की बराबरी कर रही हैं। कई राज्यों की मुख्यमंत्री आदि जैसे शीर्ष पदों पर भी आसीन हुई हैं। आज ऐसी तमाम बेटियां हैं जो अलग-अलग क्षेत्रों में देश का नाम रोशन कर रही हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस सब के बावजूद उनके प्रति पुरुषों का दोयम नजरिया नहीं बदला है। यही वजह है कि वे घर और बाहर कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। यह विचारणीय प्रश्न है कि ऐसा क्यों है। हम अपने बच्चों को दूसरे के घर की महिलाओं का सम्मान करना क्यों नहीं सिखा पाते। बच्चों को संस्कार या तो प्राथमिक शिक्षा के दौरान मिलती है या उसके माता-पिता से। बड़े होने पर संस्कार नहीं सिखाया जा सकता। जाहिर है एक शिक्षक और अभिभावक के रुप में हम पूरी तरह असफल हैं। हम अपने
लड़कों के पालन-पोषण के समय उसको यह एहसास दिलाते हैं कि वह लड़कियों से श्रेष्ठ हैं। अनजाने में ही सही लेकिन हम उनमें लिंग-भेद व्याप्त कर देते हैं। हमें यह समझना चाहिये कि जब लड़के बड़े होते हैं तो इसी मानसिकता के आधार पर उनके व्यक्तित्व का भी निर्माण होता है। समाज विज्ञानियों का भी मानना है कि महिलाओं के साथ छेड़छाड़ का स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक आकर्षण या यौन-सम्बन्धों से कोई सम्बन्ध नहीं है। छेड़छाड़ के द्वारा पुरुष अपनी श्रेष्ठता को स्त्रियों पर स्थापित करना चाहता है और उसकी ऐसी ही कोशिशों का अंजाम इस तरह की घटनाओं के रुप में सामने आती हैं। लड़कों का लालन पालन यदि इसी  श्रेष्ठता बोध के साथ होता रहेगा तो कैसे जीयेंगी लड़कियां। जब तक हमारी सोच नहीं बदलती बेटा और बेटी एक समान केवल नारे तक ही सीमित रहेगा। जिनकी केवल बेटियां ही होगी वह दहशत में ही जीने को मजबूर होंगे।
इस बर्बर घटना के बाद दुष्कर्म जैसे अपराधों के मुकदमें को तेजी से निपटाने,अपराधियों को सख्त सजा देने और महिलाओं की समानता,सुरक्षा व सम्मान के लिये सरकार के स्तर पर तत्काल कदम उठाने की बात हो रही है। सरकार ने इसके लिये पहल भी शुरु कर दी है लेकिन क्या केवल कानून भर बना देन से महिलाओं के प्रति समाज का जो नजरिया है बदल जायेगा।
महिलाओं के खिलाफ आपराधिक घटनाओं को अंजाम देने वाले तमाम लोग सबसे ज्यादा समाज की उदासीनता का ही बेजा फायदा उठाते हैं। यौन उत्पीडऩ या छेड़छाड़ की घटनाओं को लेकर सामाजिक संवेदनहीनता जगजाहिर है। यौन अपराधों के दोषियों के प्रति नरम रुख अपनाना न केवल अवांछनीय है बल्कि यह किसी भी समाज के लिये भी अत्यंत खतरनाक है। जब देश के राष्ट्रपति का बेटा और जनप्रतिनिधि तक महिलाओं के बारे में संकीर्ण विचार रखते हों तो और बेहूदी दलीलें देते हों तो आम आदमी की मानसिकता का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। यह सही है कि देश में महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े कानून पूरी तरह अप्रभावी हैं लेकिन यह भी सच है कि अपराधियों के हौसले इसलिये भी बुलंद हैं कि कानून के साथ उन्हें समाज का भी डर नहीं है। समाज दुराचारियों को संरक्षण देने का काम करेगा तो ऐसा समाज किस काम का है। यदि कानून व्यवस्था दुरुस्त भी रहे तो इतने भर से सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में कमी नहीं आ जाएगी। जब तक समाज अपने स्तर पर महिलाओं के प्रति जरूरी संवेदनशीलता नहीं दिखायेगा सरकारें और पुलिस कड़े कानूनों के प्रावधानों के बावजूद अपनी जिम्मेदारियों को लेकर कभी भी गंभीर नहीं होगी  महिलाओं को बार बार इस तरह की घटनाओं का सामना करना पड़ेगा ही।
यदि हम चाहते कि हमारी बेटियां निर्भीक होकर घरों से बाहर निकलें और सुरक्षित घर लौटें तो हमें उनके लिये बेहतर माहौल भी उपलब्ध करना ही  होगा और इसकी शुरुआत हमें अपने आस पड़ोस से शुरु कर देनी चाहिये।  धीरे-धीरे लोग आते जायेेंगे और कारवां बनता जायेगा। सामूहिक दुराचार की बर्बरता की शिकार युवती को समाज की यही सही सच्ची श्रद्धांजलि होगी। यदि हम अब भी नींद से नहीं जागे तो आने वाली पीढिय़ां हमें कभी माफ नहीं करेंगी और देश की इस बेटी का बलिदान भी व्यर्थ जायेगा।