Thursday, June 16, 2011

उपेक्षा से जन्मी समस्या


 अंतत:  झारखंड सरकार जागी है और अब मानव तस्करी निरोधक नीति तैयार की जा रही है, किंतु इसे अभी इतनी लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा कि क्रियान्वयन के धरातल पर उतरते-उतरते काफी समय लग जाएगा। पहले तो समस्या यह थी कि सरकार मानव तस्करी को गंभीरता से ले ही नहीं रही थी और इसी का परिणाम रहा है कि प्रदेश के अनेक लोगों को दूसरे प्रदेशों में जलालत और कष्ट झेलना पड़ा।

झारखंड मानव तस्करों का स्वर्ग माना जाता है। मानव तस्कर प्रदेश में रोजगार की कमी और यहां के नागरिकों के सीधेपन का लाभ उठाकर प्रदेश की श्रमशक्ति को बाहर ले जा रहे हैं और मामूली कीमत या कभी-कभी बिना कीमत के उन्हें गुलाम के रूप में इस्तेमाल करते हैं। तस्कर यहां की लड़कियों से वेश्यावृत्ति कराने से भी नहीं चूकते हैं। मुरहू प्रखंड के एक गांव की लड़की को वेश्यावृत्ति में धकेलने की कोशिश की गई जिसने लौटकर आप बीती सुनाई। वह अकेली नहीं है, ऐसी अनेक लड़कियां हैं जिन्हें प्लेसमेंट की लालच देकर ले जाया जाता है और पहले उनका शारीरिक शोषण किया जाता है बाद में जब शरीर बिकाऊ नहीं रह जाता है तो उन्हें घरेलू नौकरानी के रूप में रूप में इस्तेमाल किया जाता है। जब कोई लड़की बगावत करने में सफल हो जाती है और तस्करों के चंगुल से बच निकलती है तो मामला प्रकाश में आता है और जो बगावत का साहस नहीं जुटा पाती हैं या लोकलाज वश अपनी पीड़ा अभिव्यक्त नहीं कर पाती हैं वे आजीवन उसी नर्क में पिसती रहती है तथा उनका जीवन पशुओं से भी बदतर हो जाता है। एक आंकड़े के मुताबिक प्रदेश से हर वर्ष 33 हजार महिलाएं काम की तलाश में दलालों या तस्करों के माध्यम से प्रदेश से बाहर जाती हैं और उनमें से बड़ी संख्या ऐसी महिलाओं की होती है जो शारीरिक शोषण का शिकार होती है।

बात केवल महिलाओं तक ही सीमित नहीं है बल्कि बड़ी संख्या में पुरुष भी तस्करों के शिकार बनते हैं। उन्हें अच्छे रोजगार तथा मोटी कमाई का लालच दिया जाता है। उन्हें शहरों की चमक-दमक दिखाई जाती और बताया जाता है कि बड़े शहरों में जल्द धनवान बनना आसान है। ऐसा अधिकांश किशोरों के साथ ही किया जाता है। सिनेमा के जरिये बड़े शहरों की खिड़की में झांक चुके किशोर बड़ी आसानी से इस प्रलोभन में आ जाते हैं। तस्कर उन्हें दूसरे प्रदेश में ले जाकर फैक्ट्रियों, ईंट भट्ठों या खेतों में श्रमिक स्पलाई करने वाले ठेकेदारों के हाथ बेच देते हैं। यह खरीद-फरोख्त इतनी गोपनीय होती है कि बिकने वाले को भनक तक नहीं लगती है और जब तक यह प्रक्रिया चलती रहती है तब तक उसकी सम्मान्य अतिथि की भांति सेवा की जाती है। जैसी ही वह फैक्ट्री, ईंट भट्ठे या खेतों में काम के लिए ले जाया जाता है उसे बंधक बना लिया जाता है। ऐसे हजारों बंधुआ मजदूर हैं जिनसे अन्य प्रदेशों में जानवरों की भांति काम लिया जाता है और बदले में जलालत, गालियां और मारपीट मिलती है। जब वह अपनी मजदूरी मांगता है तब उसे बताया जाता है कि मजदूर नहीं वह तो खरीदा गया गुलाम है।

कुछ ऐसे भी मामले सामने आए हैं जिसमें प्रदेश के बाहर अत्याचार का शिकार हुआ व्यक्ति स्वयं ही प्रदेश छोड़ कर कमाई करने के लिए बाहर गया और पुलिस की पेंडिंग फाइलों में चस्पा कर अपराध निपटारे का निवाला बन गया। पुलिस वाले लंबित पड़े मामले की जांच पूरी कर उनकी गिरफ्तारी किसी ऐसे अपराध में दर्ज कर देते हैं जिसके बारे में उसे कुछ भी नहीं पता होता है। जिन राज्यों में नक्सलवाद का प्रभाव है या नक्सलवाद पैर पसार रहा है वहां झरखंड के ऐसे भोले-भाले व्यक्ति को नक्सली बता देना आसान होता है और वाह-वाही पुलिस के खाते में चले जाती है। कुल मिला कर समस्या गंभीर है किंतु उसकी ओर ध्यान देने का कष्ट सरकार नहीं उठाती है।

सरकार को इस ओर ध्यान देने में कष्ट तो होगा ही, क्योंकि यह एक खर्चीला काम है। इस समस्या को दूर करने के लिए उन कारण को समाप्त करना पड़ेगा जो इस समस्या को जन्म दे रहे हैं। यह स्थितियां प्रदेश में रोजगार के अभाव और गरीबी के कारण ही जन्म लेती है। सुदूर आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा का समुचित प्रसार भी नहीं हुआ है। गरीबी से तंग व्यक्ति की मजबूरी होती है कि वह पेट की आग बुझाने के रास्ते तलाशे और ऐसे में भटकना भी स्वाभाविक है। आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षा का प्रसार किया जाए और लोगों को रोजगार के अवसर मुहैया करवाए जाएं। प्रदेश में विकास का समान वितरण हो और विकासशील शहरों में जैसे कल-कारखाने खुल रहे हैं वैसे ही आदिवासी क्षेत्रों में खोले जाएं। लोगों को उनके हित-अहित की सही जानकारी दी जाए और सरकारी योजनाओं को पिछड़े इलाकों की ओर मोड़ा जाए। मानव तस्करी को रोकने के लिए कड़े कानूनी प्रवाधान किए जाएं। हम इस मामले में कितनी देर से चेते हैं इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जापान ने जहां उन्नीसवीं शताब्दी में ही अपने यहां मानव तस्करी निरोधक कानून बना लिया था वहीं भारत में ऐसा कानून महज दो वर्ष पूर्व अस्तित्व में आया है। जाहिर है कि इसे सभी राज्यों में कोने-कोने तक पहुंचने में समय तो लगेगा ही। अब यह राज्य सरकार पर निर्भर है कि वह इसे लागू करने में कितनी तत्परता दिखाती है और किस स्वरूप में इसे लागू करती है। झारखंड में मानव तस्करी निरोधक नीति बनाने की प्रक्रिया भी अभी प्रारंभिक स्तर तक ही सीमित है। समाज कल्याण, महिला एवं बाल विकास विभाग ने इसके लिए नीति का मसौदा तैयार कर लिया किंतु उसे अभी कई अन्य विभागों की स्वीकृति मिलनी बाकी है। यह काम बहुत आसान भी नहीं है। इसके लिए सरकार के सभी विभागों को एक साथ जुटना होगा। इस समस्या को राजनीति और वोट बैंक का चश्मा उतार कर देखे जाने की जरूरत है। यह प्रदेश का सौभाग्य है कि इसके पास इतनी बड़ी श्रम शक्ति उपलब्ध है और इसका यदि सही इस्तेमाल किया गया तो झारखंड को एक विकसित राज्य बनने से कोई ताकत नहीं रोक सकती है।

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