Wednesday, June 22, 2011

दोषपूर्ण व्यवस्था की आत्मघाती अनदेखी

झारखंड में 12वीं कक्षा में मात्र 42 प्रतिशत विद्यार्थियों का ही पास होना इतना चौंकाने वाला नहीं है जितना कि प्रदेश के शिक्षा मंत्री के दोनों बच्चों का परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाना है। कहने को यह कहा जा सकता है कि प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था में इतनी ईमानदारी है कि चाहे कोई कितना भी सामर्थ्यवान क्यों न हो उसे अतिरिक्त छूट नहीं दी जा रही है किंतु यदि शिक्षा मंत्री के बच्चे पढ़ने में कमजोर थे तो क्या उनके अभिभावक को इससे अवगत करना शिक्षक अथवा स्कूल की जिम्मेदारी नहीं थी। सच्चाई तो यह है कि शिक्षा व्यवस्था इतनी लावारिस हो गई है कि उसकी ओर कोई ध्यान देने वाला ही नहीं है। परीक्षा परिणाम शीघ्र घोषित करने की जल्दबाजी में उत्तर पुस्तिकाओं का सही ढंग से मूल्यांकन नहीं किया जा रहा है और विद्यार्थियों को औसत नंबर दे कर काम चला लिया जा रहा है, हजारों की संख्या में ऐसे छात्र हैं जो उपस्थित रहे हैं और उन्हें अनुपस्थित घोषित कर दिया गया है और बहुत से ऐसे छात्र भी हैं जिन्हें प्रैक्टिकल में तो ९० नंबर तक मिल गए हैं किंतु सैद्धांतिक परीक्षा में शून्य नंबर दिए गए। यह सारी घटनाएं अव्यवस्था का संकेत नहीं देती हैं तो और क्या है? कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं कि विद्यार्थी इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा तो पास कर गया है किंतु १२वीं में फेल हो गया। क्या यह माना जाना चाहिए कि १२वीं के प्रश्नपत्र इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा के प्रश्नपत्र से भी कठिन बनाए गए? कारण अनेक हैं किंतु जह रिजल्ट आए नतीजों पर हो-हल्ला मचा तो ठीकरा फोड़ने के लिए सिर की तलाश होने लगी। ऐकडमिक कौंसिल के कर्ता-धर्ताओं का कहना है कि पेपर बनाना और कापी जांचना शिक्षकों का काम है इसमें उनका कोई दोष नहीं है, शिक्षक अपनी अलग समस्या रोते हैं। उनका कहना है कि प्रदेश में शिक्षकों की बेहद कमी है और इसपर उनसे शैक्षणिक काम से इतर काम भी लिया जा रहा है। कुल मिला कर यदि देखा जाए तो समूची शिक्षा व्यवस्था ही इतनी खराब है कि पढ़ाई-लिखाई नहीं हो रही है। इसका प्रभाव यह हो रहा है कि राज्य में तथाकथित शिक्षित बेरोजगारों की फौज खड़ी हो रही है जो प्रदेश के विकास में किसी प्रकार का योगदान नहीं कर सकती है। सच तो यह है कि झारखंड बोर्ड ने पैर्टन तो सीबीएसर्इ का अपना लिया लेकिन उत्ततरपुस्तिकाओं का मुल्यांझकन सही तरीके से नहीं किया गया। ऐसे में जो बच्चे पढ़ने में रुचि लेते हैं उनका मनोबल और उत्साह भी ऐसे नतीजों से ठंडा पड़ जाता है। इम्तहान में फेल होने के कारण अकेले रांची में दो छात्राओं ने आत्महत्या कर ली। इस दुखदायी घटना के लिए जिम्मेदार कौन है? क्या सरकार अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही से बच सकती है? सच्चाई यह है कि राज्य में पठन-पाठन का माहौल ही नहीं रह गया है। ग्यारह वर्ष पूर्व राज्य के गठन के समय यह कल्पना की गई थी कि बिहार के साथ जुड़े रहने के कारण इसे जो घाटा उठाना पड़ा है उसकी भरपाई अब यहां के लोग, राजनेता और अफसरशाही अपने श्रम से कर लेंगे। कुछ दिनों तक वह जज्बा दिखा भी किंतु बाद में स्थितियां निरंतर बिगड़ती गईं और अब हालात यह है कि जिन राजनेताओं पर नीतियां बनाने की जिम्मेदारी है वे अपनी गद्दी सुरक्षित करने की फिराक में हैं, जिस अफसरशाही पर नीतियों को लागू करने और उसकी निगरानी करने की जिम्मेदारी है वह नेताओं की परिक्रमा करने तथा अपना उल्लू सीधा करने में व्यस्त हैं और बीच में पिस रही है जनता। जहां तक शिक्षक वर्ग का सवाल है तो उसे अधिकाधिक सुविधाओं की मांग से ही फुर्सत नहीं है, वह पढ़ाएगा क्या। परीक्षा परिणाम खराब होने के पीछे भी यही वजह बताई जाती है कि मंत्री और सचिव के बीच तनातनी चल रही है। निचले स्तर के अधिकारी इसमें अपनी गोटियां बैठाने में व्यस्त हैं और शिक्षक अपनी मांगों को मनवाने में। शिक्षकों का सारा जोर इसी बात पर होता है कि कैसे अपने घर के आस-पास तैनाती मिल जाए।
इन सब का कुप्रभाव पठन-पाठन से लेकर ढांचागत प्रबंधों तक पर पड़ रहा है। राज्य के माध्यमिक विद्यालयों में कम से कम दो हजार शिक्षकों की कमी है। शिक्षा नीति के अनुसार हर पांच किलोमीटर पर एक माध्यमिक विद्यालय होना चाहिए। इस हिसाब से पांच हजार विद्यालयों की कमी है। दिनों दिन शिक्षा का प्रसार बढ़ रहा है इसलिए विद्यार्थियों की संख्या भी बढ़ रही है। ऐसे में यदि उन्हें उचित शिक्षा नहीं मिल पाती है तो यह संख्या प्रदेश पर बोझ ही मानी जाएगी। शिक्षा से वंचित प्रतिभा यदि किसी नकारात्मक काम में जुट जाती है तो वह विध्वंसक ही होगी। झारखंड में शिक्षा का समुचित प्रसार अन्य प्रदेशों की तुलना में अधिक आवश्यक है। अपेक्षाकृत नया प्रदेश होने के नाते इसे अपना विकास तो करना ही है साथ ही यह नक्सलवाद जैसी समस्या से भी जूझ रहा है। शिक्षा का अभाव ऐसी समस्याओं को बढ़ाने वाला ही होगा और इसका लाभ अराजक तत्वों को मिलेगा।

हालांकि पहले संघ लोक सेवा आयोग की प्रतियोगी परीक्षा में झारखंड के दर्जन भर अभ्यर्थियों की उल्लेखनीय उपलब्धि और लगे हाथ आइसीएसई की परीक्षाओं में करीब नब्बे फीसदी विद्यार्थियों की सफलता ने साबित कर दिया है कि राज्य में प्रतिभा की कमी नहीं। लेकिन कोई न कोई कमी तो है जो प्रदेश में दसवीं और बारहवीं की परीक्षा में परिणाम इतने निराशाजनक आ रहे हैं।

सरकार दावों की वीर है। शिक्षा व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन का दम भरते हुए उसने सीबीएसई पैटर्न लागू कर दिया। अब उसका मुकाबला केंद्रीय बोर्ड से है, किंतु राज्य बोर्ड के नतीजे बताते हैं कि खोट पैटर्न में नहीं बल्कि उसे अमलीजामा पहनाने में। व्यावहारिक रूप से प्रदेश सरकार के शिक्षक उस प्रकार विद्यार्थियों को नहीं पढ़ा रहे हैं जैसे केंद्रीय स्कूलों में पढ़ाया जाता है। इतना ही नहीं निजी स्कूलों में भी सरकारी स्कूलों से बेहतर पढ़ाई हो रही है। नतीजे यह भी बताते हैं कि सावल पाठ्यक्रम की गुणवत्ता का नहीं है, बल्कि शिक्षण की गुणवत्ता का है। पैटर्न बदलने से भला क्या हो सकता, जब तक कि उसे पढ़ाया न जाए। आखिर क्या वजह है कि एक ही कोर्स किसी अन्य स्कूल में पढ़ाया जाता तो नतीजे कुछ निकलते हैं और दूसरे स्कूल में उसके नतीजे कुछ और? यह सरकार के लिए खोज का विषय है। जिस विभाग पर शिक्षित-दीक्षित कर राज्य की वर्तमान और भावी पीढ़ी का भविष्य संवारने की जवाबदेही है, उसकी यह शिथिलता उसके नीति निर्माताओं और कार्यशैली पर सवालिया निशान लगाती है। सरकार इस समय शिक्षा के सवाल पर कठघरे में खड़ी है और उसे उन सवालों का जवाब तलाशना होगा। उसे उन गलतियों को सुधारना होगा जो राज्य के नेता और नौकरशाह कर रहे हैं। जब तक इन कारणों को दूर नहीं किया जाएगा, शिक्ष के क्षेत्र में किली जादू या चमत्कार की आशा नहीं की जा सकती है।





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