Saturday, July 13, 2013

इतिहास खुद को दोहरा रहा है

झारखंड में एक बार फिर गठबंधन सरकार बनने जा रही है। शिबू सोरेन के राजनीतिक उत्तराधिकारी हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने जा रहे हैं। राष्टï्रपति शासनों की अवधि छोड़ भी दें तो तेरह वर्षों में यह नौवीं सरकार होगी और हेमंत पांचवें मुख्यमंत्री। इससे पहले बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, मधु कोड़ा, शिबू सोरेन मुख्यमंत्री पद की शोभा बढ़ा चुके हैं। अर्जुन मुंडा और शिबू सोरेन को तो तीन बार मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला। यह अलग बात है कि इनमें से कोई भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। कहते हैं इतिहास कभी कभार अपने को दोहराता है, लेकिन झारखंड के संदर्भ में यह कहावत फिट नहीं बैठती। झारखंड की राजनीति में एक दशक से जो कुछ घटित हो रहा है, उसको देख कर तो यही लगता है कि  इतिहास अपने को हमेशा दोहराता रहता है। शायद इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि हम इतिहास से कोई सबक नहीं लेते। इसीलिये उसे बार-बार दस्तक देनी पड़ रही है।
 हेमंत भले ही नए मुख्यमंत्री बन रहे हों, लेकिन इसमें कुछ भी नया नहीं है। यह पुरानी फिल्मों की रिमेक की तरह है जिसकी कहानी पुरानी ही है। बस निर्देशक और पात्रों के किरदार बदल गये हैं। जोड़-तोड़ कर सरकार बनाने के लिये जो गठबंधन बना है उसमें हेमंत सोरेन को ट्रेजडी, ड्रामा और एक्शन वैसा ही देखने को मिलेगा, जैसा उनके पूर्ववर्ती समकक्षों के समय गाहे-बगाहे दिखाई देता था। देखा जाये तो गठबंधन में शामिल दलों और निर्दलीयों को साधना आसान काम नहीं है। यहां के राजनीतिक दलों व नेताओं के पास कोई स्पष्टï एजेंडा नहीं है। सत्ता के लिये वक्त और मौके की नजाकत के हिसाब से उनका स्टैंड और एजेंडा बदलता रहता है और यही सबसे बड़ी समस्या है। राज्य के लोगों की नजर इस पर टिकी रहेगी कि वह बतौर मुख्यमंत्री इससे कैसे निपटेंगे। उनके लिये यह आसान भी नहीं है। उन्हें यह ध्यान में रखना होगा कि उनके पूर्व जो लोग बेमेल का गठबंधन कर मुख्यमंत्री बने, उन्हें किस तरह कुर्सी बचाने के लिये नेताओं और राजनीतिक दलों को खुश करना पड़ा और उससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला। इससे पूरे देश में राज्य की इतनी बदनामी हुई कि झारखंड एक तरह से भ्रष्टïाचार का पर्याय बन गया।

 यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि झारखंड जैसी राजनीतिक अस्थिरता देश के किसी राज्य में देखने को नहीं मिलती। जाहिर है, जब किसी मुख्यमंत्री को ज्यादातर समय अपनी कुर्सी बचाने और गठबंधन के नेताओं के हित साधने में ही लग जायेंगे तो वह भला राज्य के लिये क्या कर सकता है।
झारखंड के फिसड्डी होने के पीछे सबसे बड़ी वजह राजनीतिक अस्थिरता ही रही है। बड़ा सवाल यह है कि 2003 में बाबूलाल मरांडी को हटा कर अर्जुन मुंडा को भाजपा द्वारा मुख्यमंत्री बनाने के बाद से राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का जो दौर शुरू हुआ है, वह हेमंत सोरेन द्वारा अर्जुन मुंडा को कुर्सी से हटाने और उनके मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने से क्या खत्म हो जायेगा? यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है, जिसका जवाब फिलहाल किसी राजनीतिक दल के पास नहीं है और न ही वह देना चाहता है। 
यह सही है कि लोकतंत्र में राष्ट्रपति शासन लोकप्रिय सरकार का विकल्प नहीं हो सकता। राजनीतिक दलों की यह जिम्मेदारी भी बनती है कि वे जनता को उनके चुने हुए प्रतिनिधियों की सरकार दे, लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि गठबंधन सरकार का नेतृत्व करना तनी हुई रस्सी पर चलने के समान है। संतुलन बिगड़ा नहीं कि जमीन पर गिरे। खतरा तब और बढ़ जाता है, जब रस्सी ऐसे लोगों के हाथ में हो, जो जब चाहे खींच दें। साझे दलों में अंतद्र्वंद्व की वजह से सरकार बहुत सेहतमंद नहीं कही जा सकती है। इसमे कोई दो राय नहीं कि हेमंत के मुख्यमंत्री बनने से झारखंड की राजनीति नया मोड़ ले रही है। झामुमो और उसके नेता शिबू सोरेन का नाम भले ही अलग राज्य की लड़ाई में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा, लेकिन सत्ता की चाबी बार-बार हाथ से फिसलने की वजह से झारखंड के नवनिर्माण में वह और उनका दल चाह कर भी हासिये पर ही रहा। आदिवासियों के विकास की उनकी सोच अब भी धरातल पर नहीं उतर पाई। यही वजह है कि शिबू सोरेन और उनका दल हेमंत सोरेन में अपना भविष्य देख रहा है। सरकार में शीर्ष पद पर पहुंचने से वह झामुमो का नया चेहरा बन कर उभर रहे हैं। हालांकि बदलाव की इस प्रक्रिया में पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी के नेतृत्व को स्वीकार करने में खुद को असहज महसूस कर रही है, यह स्वाभाविक भी है। यदि गठबंधन की मजबूरियों व चुनौतियों से हेमंत पार पा लेते हैं तो उनकी राह आसान हो सकती है, क्योंकि झारखंड में नेतृत्व का संकट उतना नहीं जितना कुशल नेतृत्व और गवर्नेंस की जरूरत है। वह एक नया इतिहास बना सकते हैं, तब शायद इतिहास अपने को फिर नहीं दोहराएगा। 

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