Saturday, July 11, 2015

झारखंड में भ्रष्टाचार

झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास का एक बयान इन दिनों चर्चा में है। उनका कहना है कि बीते 15 साल में राज्य में इतने घोटाले हुए हैं कि अगर उनकी जांच कराई जाए तो पांच साल निकल जाएगा। वे जहां हाथ डाल रहे हैं, वहीं भ्रष्टाचार दिख रहा है। मुख्यमंत्री की यह साफगोई विपक्ष अपने चश्मे में देख रहा है, क्योंकि इसमें उसे राजनीतिक फायदा नजर आ रहा है, लेकिन इससे इतर मुख्यमंत्री के बयान को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश भी करनी होगी। विपक्ष इसे मुद्दा बना रहा है कि बीते 15 साल में सबसे ज्यादा वक्त तक राज्य में भाजपानीत गठबंधन सरकारों का राज रहा। इस लिहाज से मुख्यमंत्री अपने ही दल को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं, लेकिन 15 सालों का आकलन कर देखें तो झारखंड की छवि एक दिन में तार-तार नहीं हुई। झारखंड को कमीशनखंड तक कहा जाता रहा। ये परिस्थितियां कैसे पैदा हुई? जब बिहार से यह प्रांत अलग हुआ तो बाबूलाल मरांडी पहले मुख्यमंत्री बने। उन्होंने राज्य में मौजूदा संसाधनों को विकसित करने की पहल आरंभ की, पर दुर्भाग्य से राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी बनीं कि उन्हें सत्ता से बाहर होना पड़ा। इसके बावजूद सत्ता की बागडोर भाजपा के हाथ में ही रही। अजरुन मुंडा ने सबसे ज्यादा समय तक सूबे पर राज किया, लेकिन उनपर भ्रष्टाचार का ऐसा कोई आरोप नहीं है, जिसमें उनकी संलिप्तता सामने आई हो। 1इससे इतर येन-केन-प्रकारेण झारखंड की सत्ता हथियाने वाले क्षेत्रीय दलों की राजनीति और उसकी आड़ में खुद को पनपने का मौका देखने वाली राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस की गतिविधियां संदेह के घेरे में अवश्य आई। कांग्रेस ने एक निर्दलीय को समर्थन देकर इतिहास रच डाला। यही वह दौर था, जब सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार की शिकायतें प्रमाण के साथ सामने आईं। खुद निर्दलीय सरकार के मुखिया रहे मधु कोड़ा को इस आरोप में जेल जाना पड़ा। उनकी मंत्रिपरिषद के अधिकांश सदस्यों पर आज भी इससे संबंधित मामले चल रहे हैं। दो पूर्व मंत्री अभी भी जेल में हैं। आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने वाले पूर्व मंत्रियों की संपत्ति तक जब्त करने की कार्रवाई प्रवर्तन निदेशालय कर चुका है। इस दौरान झारखंड संस्थागत भ्रष्टाचार का शिकार बनकर जिस बुरी तरह बदनाम हुआ, वह बदनुमा दाग आज भी राज्य के माथे पर है। यह दाग मिटाना एक बड़ी चुनौती है, जिसे पहली बार बहुमत सरकार के मुखिया बने रघुवर दास ने अभी तक साबित भी कर दिखाया है। छह माह का उनका कार्यकाल बेदाग रहा है। मंत्रिमंडल के किसी सदस्य पर कोई आरोप नहीं है, यह एक बानगी है कि प्रदेश पटरी पर धीरे-धीरे ही सही, लौट रहा है। भ्रष्टाचार पर शिकंजा कसने के प्रयास का ही प्रतिफल है कि इतने कम समय में कई अधिकारी और कर्मी भ्रष्ट आरोपों में पकड़े गए हैं। मुख्यमंत्री ने निगरानी ब्यूरो को भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के रूप में विकसित कर यह संदेश दिया है कि गलत आचरण बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और जो ऐसा करने का दुस्साहस करेगा, वह कानून के शिकंजे में होगा। भ्रष्टाचार प्रमाणित होने पर संपत्ति जब्त करने का कानून भी राज्य सरकार बना रही है।1इन तमाम दृष्टांतों से अलग बहुमत की सरकार बनने के बावजूद काम की जो गति है, वह रफ्तार नहीं पकड़ पा रही है तो इसकी एक बड़ी वजह राज्य की नौकरशाही है। यह ध्यान रखना होगा कि विभागीय भ्रष्टाचार के बावजूद बीते 15 साल में कितने नौकरशाह भ्रष्टाचार के आरोप में सलाखों के भीतर गए, जबकि इनकी जिम्मेदारी राज्य को पटरी पर लाने की थी। दरअसल अल्प बहुमत वाली सरकारों के साथ काम कर खुद को हमेशा हावी बनाए रखने की नौकरशाहों की मानसिकता अभी भी नहीं बदल रही है। यह ध्यान रखना होगा कि अब पूर्ण बहुमत की सरकार है और नौकरशाही को अपनी मानसिकता बदलनी होगी। सिर्फ दस से पांच बजे तक की ड्यूटी बजाकर हुक्मरान अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग सकते। हालांकि राज्य में ऐसे बहुतेरे अधिकारी हैं, जिनके दामन पर कोई दाग नहीं है और वे अच्छा काम भी कर रहे हैं। समस्या उन अफसरों से है, जो बदलने के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसे अधिकारियों को सोचना होगा कि सिर्फ हुक्म बजाने के लिए वे प्रशासनिक या पुलिस सेवाओं में नहीं आए हैं। अगर उनकी यह सोच है तो गलत है, राज्य के हित में नहीं है। कार्यपालिका को अपनी जिम्मेदारी का खुद अहसास करना होगा। नौकरशाही का काम केवल राज्य को चलाना भर नहीं है, बल्कि राज्य के भविष्य को बनाना भी उनका काम है। यह अच्छी बात है कि मुख्यमंत्री ने अपनी कोर टीम में ऐसे अधिकारियों को रखा है, जो नित्य विकास योजनाओं की ंिचंता कर रहे हैं। विभागों की समीक्षा हो रही है और जहां खामियां दिख रही हैं, उन्हें तत्परता से ठीक भी किया जा रहा है। दुर्भाग्य से राज्य में कार्यपालिका और विधायिका के बीच बहुत अच्छे संबंध नहीं रहे हंै, लेकिन वर्तमान सरकार के कार्यकाल में ऐसा कोई प्रकरण सामने नहीं आया है, जिससे यह प्रतीत होता हो कि राजनीतिक नेतृत्व के स्तर से नौकरशाही को प्रभावित करने की कोशिश की जा रही हो। यह कार्यपालिका को तय करना होगा कि 15 साल बाद जो मौका आया है, राज्य हित में उसका कैसे सदुपयोग करे। सकारात्मक पक्ष यह है कि मुख्यमंत्री भी कई बार इसे इंगित कर चुके हैं। वे अधिकारियों से सुझाव मांगते हैं और उसपर अमल भी करते हैं। स्वयं की प्रेरणा से भी काम करने की सलाह देते हैं। यह बेहतर मौका है कि राज्य की कार्यपालिका अपनी उपयोगिता को प्रमाणित करे, ताकि पूर्व में हुए दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरणों की छाया हट जाए और राज्य की नौकरशाही का संवेदनशील और जिम्मेदार पक्ष लोगों के सम्मुख आए। 1राज्य में पहली बार बनी बहुमत की सरकार से लोगों को ढेर सारी अपेक्षाएं हैं। अगर ये अपेक्षाएं पूरी नहीं हुई तो इसका ठीकरा राजनीतिक नेतृत्व के मत्थे फोड़ा जाएगा। मुख्यमंत्री भी इस हकीकत से वाकिफ हैं और इस मायने में उनका बयान साहसिक है। इसका निहितार्थ समझने की कोशिश करनी होगी। क्षणिक राजनीतिक नफा-नुकसान से अलग उनकी पीड़ा है। यह पीड़ा उस राज्य की है, जो अभी भी अपनी अस्मिता और पहचान को पाने के संघर्ष में उलझा है। खुद को गर्व से झारखंडी कहने में संकोच करता है, क्योंकि उसके चेहरे पर भ्रष्टाचार का लेबल चस्पा कर दिया गया है। इस खंडित अस्मिता को पाने के लिए अगर पूरी ऊर्जा से झारखंड खड़ा होगा तो पीछे की तमाम अवधारणाएं पीछे ही छूट जाएगी। इस नई सोच के साथ राज्य को गढ़ने की मंशा पर अगर काम आरंभ हुआ है तो इसे मंजिल तक पहुंचाना ही होगा। झारखंड आज ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहां से कई रास्ते निकलते हैं। अब यह जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों के ऊपर है कि वे ऐसा रास्ता चुनें, जो राज्य को सुख-समृद्धि और खुशहाली की ओर ले जाए। वैसे मुख्यमंत्री को विकास में बाधक अफसरों के खिलाफ कार्रवाई का भी विकल्प खुला रखना होगा, ताकि काम काज की गति धीमी न पड़े। बहुमत की सरकार है। यदि इस बार चूक गए तो न राज्य की जनता माफ करेगी और न ही इतिहास।

Saturday, July 4, 2015

झारखंड में बिजली संकट

झारखंड सरकार इन दिनों बिजली की उपलब्धता को लेकर चिंता में डूबी है। यह सही भी है और वक्त की मांग भी। दुर्भाग्य से बीते 14 सालों में बिजली को लेकर बातें खूब हुईं। कागजों पर हजारों मेगावाट का उत्पादन हुआ, लेकिन कोई योजना धरातल पर नहीं उतर पाई। इसकी वजह राजनीतिक अस्थिरता को बताया जाता है, लेकिन सिर्फ राजनीतिक नेतृत्व के मत्थे इस कमी को मढ़ना ज्यादती होगी। सरकारें बदल जाती हैं, पर योजनाओं को आकार रूप देने का काम कार्यपालिका करती है। लिहाजा अधिकारियों को भी अपनी चूक का अहसास करना होगा। ऐसे वक्त में जब बिजली के बगैर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती तो आखिरकार किस संसाधन के भरोसे झारखंड को पटरी पर लाने का सपना पूरा होगा।1स्थिति चिंताजनक है और काम करने का यही वक्त है। जब जागें, तभी सवेरा। मुख्यमंत्री रघुवर दास इस दिशा में गंभीरता से कार्रवाई करते दिख रहे हैं। वे पूर्व में भी इस विभाग के मंत्री रहे हैं। उनका पुराना अनुभव कामकाज को दुरुस्त करने में सहायक सिद्ध होगा। उन्होंने बिजली उत्पादन के क्षेत्र में हाल ही में केंद्र सरकार के लोक उपक्रम नेशनल थर्मल पावर कार्पोरेशन (एनटीपीसी) के साथ करार किया है। इसके तहत एनटीपीसी राज्य सरकार की जर्जर बिजली उत्पादन इकाई पतरातू थर्मल पावर स्टेशन (पीटीपीएस) की कमान अपने हाथ में लेगी। रूसी तकनीक पर इस ताप विद्युत इकाई की स्थापना 70 के दशक में हुई थी। फिलहाल इसे फिर से दुरुस्त करना कठिन काम है। एनटीपीसी यहां क्रमबद्ध तरीके से नए पावर प्लांट की भी स्थापना करेगी। अगर इस योजना पर काम आगे बढ़े तो बिजली की उपलब्धता राज्य में होगी। हालांकि फिलहाल यह काम मंद गति से चल रहा है और आरंभिक स्टेज में है। एनटीपीसी के अधिकारी मौजूदा संसाधनों का आकलन कर रहे हैं। यहां से तत्काल किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं की जा सकती। 1ऐसा नहीं है कि राज्य में बिजली को लेकर लंबीचौड़ी योजनाएं नहीं बनीं। कालांतर में कई निवेशकों ने इसमें रुचि भी दिखाई, लेकिन हतोत्साहित होकर भाग खड़े हुए। रिलांयस पावर ने हाल ही में अपनी योजना से हाथ खींच लिया। यह महती योजना धरातल पर उतरती तो करार के मुताबिक राज्य को कुल उत्पादन का 25 फीसद बिजली काफी कम दर पर मिल जाती। खैर, अब नए सिरे से प्रयास इस ढंग से हो कि उनका हश्र पुरानी योजनाएं जैसी नहीं हो। 1बिजली के क्षेत्र में बीते डेढ़ दशक की उपलब्धियां घोर निराशा पैदा करती हैं। सारे संयंत्र पुराने हैं और तकनीकी खामियों के दौर से गुजर रहे हैं। बिजली को सबसे बड़ा झटका नेता, अधिकारी और ठेकेदारों की साठगांठ ने दिया है। झारखंड राज्य विद्युत बोर्ड (अब इसकी चार स्वतंत्र कंपनियां हैं) को घोटाला बोर्ड के नाम से ज्यादा जाना जाता है। एक पूर्व मुख्यमंत्री को यहां हुए घोटालों की वजह से लंबी जेल यात्र करनी पड़ी। सरकारी राशि को बड़े पैमाने पर भ्रष्ट अधिकारी और ठेकेदार डकार गए। तीन पूर्व चेयरमैन के खिलाफ संगीन आरोप लगे। ये मामले आज भी चल रहे हैं, लेकिन किसी मुकाम तक नहीं पहुंचे। औनेपौने दाम पर उपकरणों की खरीद हुई। कई अधिकारियों ने खुद की फर्म बनाकर फर्जी आपूर्ति की। भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक वरीय अधिकारी ने इसे रोकने के लिए नियम-कायदे बनाए। उसके साथ भी छेड़छाड़ की कोशिश की गई। कई मामलों की जांच सीबीआइ कर रही है। खुद सरकार ने हाईकोर्ट को दिए गए एक शपथपत्र में कबूला था कि जांच की जद में 177 अधिकारी हैं। आज भी स्थितियां कमोवेश ऐसी ही हैं। भ्रष्टाचार बिजली के क्षेत्र में घुन की तरह मिलकर इसे खोखला कर रहा है। इस मोर्चे पर सरकार को सख्ती से पेश आना होगा। ऐसे अधिकारी चिह्न्ति किए जाएं, जो पूर्व में घपले कर साफ बच निकल गए। इससे भ्रष्ट तरीके अपनाने वालों में दहशत होगी और महकमे को पटरी पर लाना आसान होगा। उन ठेका कंपनियों को भी कार्रवाई के शिकंजे में लाना होगा, जिन्होंने बगैर काम किए सैकड़ों करोड़ डकार लिए। 1बिजली क्षेत्र में सुधारात्मक उपाय अपनाने की दिशा में भी राज्य फिसड्डी है। झारखंड विखंडन की प्रक्रिया को अपनाने वाला देश का सबसे अंतिम राज्य है। यह प्रक्रिया आज भी आधी-अधूरी है। विद्युत बोर्ड का विखंडन कर एक होल्डिंग कंपनी समेत चार नई कंपनियां बनाई गई। तमाम प्रमुख पदों पर अधिकारी-इंजीनियर तैनात कर दिए गए, लेकिन क्या सिर्फ दस्तावेजों में बिजली की स्थिति सुधरेगी। इसके लिए जर्जर वितरण व्यवस्था में बदलाव लाना होगा। सालों साल बिजली के तार नहीं बदले जाते। विकसित राज्य अब अत्याधुनिक ट्रांसफार्मरों का उपयोग कर रहे हैं और झारखंड पुराने र्ढे पर चल रहा है। उपकरणों की खरीद तक ब्लैक लिस्टेड कंपनियों से होती है। जाहिर है ब्लैक लिस्टेड कंपनियों से खरीदी गई सामग्री निम्न स्तर की होगी। पावर ट्रांसफार्मर लगातार जवाब दे रहे हैं। ग्रामीण विद्युतीकरण का भी यही हाल है। गांवों में काफी कम क्षमता के ट्रांसफार्मर लगाए गए। उनकी गुणवत्ता भी संदिग्ध है। सैकड़ों गांव आज भी रोशनी से वंचित हैं। ऐसी स्थिति में फौरी तौर पर सुधार की गुंजाइश तो नहीं दिखती, लेकिन लगातार प्रयास से इस स्थिति में बदलाव अवश्य होगा। इसके लिए प्रयास बड़े पैमाने पर होना चाहिए। राज्य सरकार कई कंपनियों के साथ एमओयू कर रही है। निवेशकों को आमंत्रित किया जा रहा है। ऐसे में यह सोचना होगा कि हम उन्हें बिजली कहां से मुहैया कराएंगे। बगैर बिजली के उद्योग-धंधे पनपने से रहे। विकास की आवश्यक शर्तो में बिजली है। झारखंड के कोयले से देश के अन्य प्रांत जगमगाते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से झारखंड अंधेरे में रहने को विवश है। समय की मांग है कि ताप विद्युत संयंत्रों के साथ-साथ गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोत स्थापित करने पर भी ध्यान देना होगा। राज्य में पनबिजली की संभावनाएं हैं, लेकिन इसपर सिर्फ कागजों में ही बात बढ़ती है। एक पनबिजली परियोजना सिकिदरी में है, लेकिन उससे पर्याप्त उत्पादन नहीं मिल पाता। सौर ऊर्जा के क्षेत्र में प्रयास किया जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक संसाधन राज्य सरकार को मुहैया कराना होगा। 14 साल में प्रदेश की आबादी लगभग एक करोड़ बढ़ गई, लेकिन बिजली के संसाधन पहले जैसे ही हैं। इस स्थिति से राज्य को उबारना पड़ेगा। अगर इच्छाशक्ति हो तो इस दिशा में काम किया जा सकता है। वैसे कई प्रदेशों का उदाहरण सामने है, जहां प्राकृतिक संसाधन नहीं रहने के बावजूद वे इतने सक्षम हैं कि बिजली की किल्लत नहीं होती। उत्तर-पूर्व के राज्यों ने पनबिजली के क्षेत्र में बेहतर काम किया है। झारखंड की भौगोलिक परिस्थितियां विषम है। इस परिस्थिति को अवसर के रूप में लेना होगा। ताप विद्युत इकाइयां वैसे स्थानों पर बनें, जहां कोल ब्लॉक और पानी की उपलब्धता हो। इससे उत्पादन की लागत कम होगी। जलाशयों का इस्तेमाल पनबिजली योजनाओं के लिए किया जाए। बंजर और ऊसर भूमि का उपयोग सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने में किया जा सकता है। समेकित प्रयास से कुछ साल में झारखंड बिजली के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो सकता है।