झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास का एक बयान इन दिनों चर्चा में है। उनका कहना है कि बीते 15 साल में राज्य में इतने घोटाले हुए हैं कि अगर उनकी जांच कराई जाए तो पांच साल निकल जाएगा। वे जहां हाथ डाल रहे हैं, वहीं भ्रष्टाचार दिख रहा है। मुख्यमंत्री की यह साफगोई विपक्ष अपने चश्मे में देख रहा है, क्योंकि इसमें उसे राजनीतिक फायदा नजर आ रहा है, लेकिन इससे इतर मुख्यमंत्री के बयान को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश भी करनी होगी। विपक्ष इसे मुद्दा बना रहा है कि बीते 15 साल में सबसे ज्यादा वक्त तक राज्य में भाजपानीत गठबंधन सरकारों का राज रहा। इस लिहाज से मुख्यमंत्री अपने ही दल को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं, लेकिन 15 सालों का आकलन कर देखें तो झारखंड की छवि एक दिन में तार-तार नहीं हुई। झारखंड को कमीशनखंड तक कहा जाता रहा। ये परिस्थितियां कैसे पैदा हुई? जब बिहार से यह प्रांत अलग हुआ तो बाबूलाल मरांडी पहले मुख्यमंत्री बने। उन्होंने राज्य में मौजूदा संसाधनों को विकसित करने की पहल आरंभ की, पर दुर्भाग्य से राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी बनीं कि उन्हें सत्ता से बाहर होना पड़ा। इसके बावजूद सत्ता की बागडोर भाजपा के हाथ में ही रही। अजरुन मुंडा ने सबसे ज्यादा समय तक सूबे पर राज किया, लेकिन उनपर भ्रष्टाचार का ऐसा कोई आरोप नहीं है, जिसमें उनकी संलिप्तता सामने आई हो। 1इससे इतर येन-केन-प्रकारेण झारखंड की सत्ता हथियाने वाले क्षेत्रीय दलों की राजनीति और उसकी आड़ में खुद को पनपने का मौका देखने वाली राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस की गतिविधियां संदेह के घेरे में अवश्य आई। कांग्रेस ने एक निर्दलीय को समर्थन देकर इतिहास रच डाला। यही वह दौर था, जब सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार की शिकायतें प्रमाण के साथ सामने आईं। खुद निर्दलीय सरकार के मुखिया रहे मधु कोड़ा को इस आरोप में जेल जाना पड़ा। उनकी मंत्रिपरिषद के अधिकांश सदस्यों पर आज भी इससे संबंधित मामले चल रहे हैं। दो पूर्व मंत्री अभी भी जेल में हैं। आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने वाले पूर्व मंत्रियों की संपत्ति तक जब्त करने की कार्रवाई प्रवर्तन निदेशालय कर चुका है। इस दौरान झारखंड संस्थागत भ्रष्टाचार का शिकार बनकर जिस बुरी तरह बदनाम हुआ, वह बदनुमा दाग आज भी राज्य के माथे पर है। यह दाग मिटाना एक बड़ी चुनौती है, जिसे पहली बार बहुमत सरकार के मुखिया बने रघुवर दास ने अभी तक साबित भी कर दिखाया है। छह माह का उनका कार्यकाल बेदाग रहा है। मंत्रिमंडल के किसी सदस्य पर कोई आरोप नहीं है, यह एक बानगी है कि प्रदेश पटरी पर धीरे-धीरे ही सही, लौट रहा है। भ्रष्टाचार पर शिकंजा कसने के प्रयास का ही प्रतिफल है कि इतने कम समय में कई अधिकारी और कर्मी भ्रष्ट आरोपों में पकड़े गए हैं। मुख्यमंत्री ने निगरानी ब्यूरो को भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के रूप में विकसित कर यह संदेश दिया है कि गलत आचरण बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और जो ऐसा करने का दुस्साहस करेगा, वह कानून के शिकंजे में होगा। भ्रष्टाचार प्रमाणित होने पर संपत्ति जब्त करने का कानून भी राज्य सरकार बना रही है।1इन तमाम दृष्टांतों से अलग बहुमत की सरकार बनने के बावजूद काम की जो गति है, वह रफ्तार नहीं पकड़ पा रही है तो इसकी एक बड़ी वजह राज्य की नौकरशाही है। यह ध्यान रखना होगा कि विभागीय भ्रष्टाचार के बावजूद बीते 15 साल में कितने नौकरशाह भ्रष्टाचार के आरोप में सलाखों के भीतर गए, जबकि इनकी जिम्मेदारी राज्य को पटरी पर लाने की थी। दरअसल अल्प बहुमत वाली सरकारों के साथ काम कर खुद को हमेशा हावी बनाए रखने की नौकरशाहों की मानसिकता अभी भी नहीं बदल रही है। यह ध्यान रखना होगा कि अब पूर्ण बहुमत की सरकार है और नौकरशाही को अपनी मानसिकता बदलनी होगी। सिर्फ दस से पांच बजे तक की ड्यूटी बजाकर हुक्मरान अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग सकते। हालांकि राज्य में ऐसे बहुतेरे अधिकारी हैं, जिनके दामन पर कोई दाग नहीं है और वे अच्छा काम भी कर रहे हैं। समस्या उन अफसरों से है, जो बदलने के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसे अधिकारियों को सोचना होगा कि सिर्फ हुक्म बजाने के लिए वे प्रशासनिक या पुलिस सेवाओं में नहीं आए हैं। अगर उनकी यह सोच है तो गलत है, राज्य के हित में नहीं है। कार्यपालिका को अपनी जिम्मेदारी का खुद अहसास करना होगा। नौकरशाही का काम केवल राज्य को चलाना भर नहीं है, बल्कि राज्य के भविष्य को बनाना भी उनका काम है। यह अच्छी बात है कि मुख्यमंत्री ने अपनी कोर टीम में ऐसे अधिकारियों को रखा है, जो नित्य विकास योजनाओं की ंिचंता कर रहे हैं। विभागों की समीक्षा हो रही है और जहां खामियां दिख रही हैं, उन्हें तत्परता से ठीक भी किया जा रहा है। दुर्भाग्य से राज्य में कार्यपालिका और विधायिका के बीच बहुत अच्छे संबंध नहीं रहे हंै, लेकिन वर्तमान सरकार के कार्यकाल में ऐसा कोई प्रकरण सामने नहीं आया है, जिससे यह प्रतीत होता हो कि राजनीतिक नेतृत्व के स्तर से नौकरशाही को प्रभावित करने की कोशिश की जा रही हो। यह कार्यपालिका को तय करना होगा कि 15 साल बाद जो मौका आया है, राज्य हित में उसका कैसे सदुपयोग करे। सकारात्मक पक्ष यह है कि मुख्यमंत्री भी कई बार इसे इंगित कर चुके हैं। वे अधिकारियों से सुझाव मांगते हैं और उसपर अमल भी करते हैं। स्वयं की प्रेरणा से भी काम करने की सलाह देते हैं। यह बेहतर मौका है कि राज्य की कार्यपालिका अपनी उपयोगिता को प्रमाणित करे, ताकि पूर्व में हुए दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरणों की छाया हट जाए और राज्य की नौकरशाही का संवेदनशील और जिम्मेदार पक्ष लोगों के सम्मुख आए। 1राज्य में पहली बार बनी बहुमत की सरकार से लोगों को ढेर सारी अपेक्षाएं हैं। अगर ये अपेक्षाएं पूरी नहीं हुई तो इसका ठीकरा राजनीतिक नेतृत्व के मत्थे फोड़ा जाएगा। मुख्यमंत्री भी इस हकीकत से वाकिफ हैं और इस मायने में उनका बयान साहसिक है। इसका निहितार्थ समझने की कोशिश करनी होगी। क्षणिक राजनीतिक नफा-नुकसान से अलग उनकी पीड़ा है। यह पीड़ा उस राज्य की है, जो अभी भी अपनी अस्मिता और पहचान को पाने के संघर्ष में उलझा है। खुद को गर्व से झारखंडी कहने में संकोच करता है, क्योंकि उसके चेहरे पर भ्रष्टाचार का लेबल चस्पा कर दिया गया है। इस खंडित अस्मिता को पाने के लिए अगर पूरी ऊर्जा से झारखंड खड़ा होगा तो पीछे की तमाम अवधारणाएं पीछे ही छूट जाएगी। इस नई सोच के साथ राज्य को गढ़ने की मंशा पर अगर काम आरंभ हुआ है तो इसे मंजिल तक पहुंचाना ही होगा। झारखंड आज ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहां से कई रास्ते निकलते हैं। अब यह जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों के ऊपर है कि वे ऐसा रास्ता चुनें, जो राज्य को सुख-समृद्धि और खुशहाली की ओर ले जाए। वैसे मुख्यमंत्री को विकास में बाधक अफसरों के खिलाफ कार्रवाई का भी विकल्प खुला रखना होगा, ताकि काम काज की गति धीमी न पड़े। बहुमत की सरकार है। यदि इस बार चूक गए तो न राज्य की जनता माफ करेगी और न ही इतिहास।
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