त्रिपुरा में भाजपा की भारी जीत के बाद वहां व्लादिमीर लेनिन की प्रतिमा ढहाने की घटना के बाद अब दूसरे राज्यों में भी राजनीतिक दलों व राज्य के प्रतीक बन चुके अन्य नेताओं और विचारकों की प्रतिमाओं पर हमले की घटनाएं सामने आ रही हैं। भाजपा के एक नेता ने तो बकायदा फेसबुक पर पोस्ट डालकर तमिलनाडु में पेरियार की प्रतिमाओं को तोड़ने की धमकी दी थी। सभी राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से अब इन घटनाओं की निंदा भले कर रहे हों, लेकिन अब यह मामला तूल पकड रहा है। लेनिन की प्रतिमा से शुरू हुआ यह सिलसिला पेरियार और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमाओं को निशाना बनाने के बाद थम जाएगा ऐसा लगता नहीं है।
भारत में हाल के वर्षों में प्रतिमाओं की भूमिका राजनीतिक महत्व को रेखांकित करने की ज्यादा रही है। देश का शायद ही कोई ऐसा राज्य हो जहां कभी भी सत्ता में रहे दलों के नेताओं या उनके राजनीतिक विचारों को प्रतिपादित करने वाले नेताओं की प्रतिमाएं बड़ी संख्या में न स्थापित की गई हों। यह अलग बात है कि समर्थक जन्मदिन आदि पर इन प्रतिमाओं पर पुष्प हार चढाते हैं तो विराधी गुस्से में जूते और चप्पल की माला। देखा जाए तो यह कोई नई बात नहीं है जब नेताओं और महापुरुषों की प्रतिमाओं का अनादर हुआ हो। राजनीतिक फायदे और नुकसान के लिए पहले भी प्रतिमाओं की राजनीति होती रही है। यह अलग बात है कि इस बार बवाल एक ऐसे साम्यवादी विदेशी नेता की प्रतिमा को लेकर हुआ है जो अपने देश में ही अप्रासंगिक हैं और साम्यवादी दौर की समाप्ति के बाद वहां भी उनकी प्रतिमाओं को उखाड फेंकने की घटनाएं हुईं थीं।
महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या ऐसे किसी विदेशी नेता की प्रतिमा के लिए भारत में कोई स्थान होना चाहिए? ऐसा केवल अपने देश में ही हो सकता है क्योंकि एक राजनीतिक पार्टी उन्हें अपना आदर्श मानती है। चुनाव दर चुनाव देश की जनता भी लेनिन को मानने वाली पार्टी को नकार रही है, लेकिन उन्हें लगता है कि उनकी विचारधारा और पार्टी अब भी प्रासंगिक है। ध्यान देने वाली बात है कि चीन में माओ का भी मानमर्दन हो चुका है।
हमारे देश में सबसे अधिक प्रतिमाएं यदि किसी की स्थापित हैं तो वे हैं भीमराव अंबेडकर। देश के गांवों और चौक चौराहों, शहर के दलित बहुल क्षेत्रों और सरकारी प्रतिष्ठानों तक में उनकी प्रतिमाएं दिख जाएंगी। देश की एक पार्टी उन्हें अपनी विचारधारा का प्रतीक बताती है। महात्मा गांधी से लेकर सरदार पटेल तक की प्रतिमाओं पर किसी न किसी राजनीतिक पार्टी का कॉपीराइट है। जबकि ये महापुरूष देश के गौरव का प्रतीक हैं किसी राजनीतिक दल के नहीं। कई नेताओं ने तो अपने जीते जी ही अपनी प्रतिमाएं बनवा लीं। इस मामले में मायावती भले ही ज्यादा बदनाम हैं, जिन्होंने करोडों रुपये खर्च कर उत्तर प्रदेश में स्मारकों के नाम पर अपनी और कांशीराम की प्रतिमाएं स्थापित करवाई, लेकिन कांग्रेस के नेता भी पीछे नहीं हैं। 60 के दशक में तमिलनाडु के एक बड़े नेता कामराज ने भी जिंदा रहते ही अपनी प्रमिता स्थापित करवा दी और उसका जवाहरलाल नेहरू से उद्घाटन भी करवा लिया।
विचारणीय प्रश्न यह है कि इन प्रतिमाओं और स्मारकों के लिए पैसा कहां से आता है? आजकल केंद्र से लेकर राज्य सरकारें अपनी योजनाओं में अपने दलों से जुड़े लोगों की प्रतिमाओं के लिए लाखों करोडों रुपये का प्रावधान करती हैं। जाहिर है यह पैसा जनता के गाढ़े खून और पसीने की कमाई है, जो वह टैक्स के रूप में सरकार को अदा करती है। यह पैसा विकास कार्यों में न खर्च कर राजनीतिक दलों के प्रतीकों की प्रतिमाएं स्थापित करने में खर्च होगा तो इससे जनता को क्या फायदा होगा। हमारे नेता सामंती राजाओं की तरह व्यवहार कर रहे हैं जो उचित नहीं है। इस तरह की राजनीति से किसी का भी हित नहीं होने वाला है। सही तो यह होगा कि सभी राजनीतिक दल प्रतीक और प्रतिमाओं की राजनीति से ऊपर उठकर विकास की राजनीति को महत्व दें नहीं तो भविष्य में इसके नतीजे और खतरनाक होंगे।
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