Tuesday, March 16, 2010

भुतवा खुले के चाही

रात को 12 बजे के बाद जैसे ही हरसू बरम बाबा हो भुतवा खुले के चाही आवाज कानों में टकराती, हम लोग बचपन में डर जाते थे। गांव में जब देर रात तक कोई बच्चा नहीं सोता था तो बडे बूढे यह कह कर डराते थे कि सो जाओ नहीं तो बिहारी भूत खोलेंगे । ऐसा नही है कि केवल बच्चे ही रात में इस वाकये से डरते थे,बडों की भी मजाल नहीं थी कि रात में उस ओर देखने का साहस कर सकें जहां से बिहारी के चिल्‍लाने की आवाज आती थी। जब तक बिहारी जिंदा रहे हमारे गांव में पीढी दर पीढी बच्‍चों को रात में उनसे डरना सिखाया गया। वही बिहारी जब दिन में इमली के पेड के नीचे या रेलवे लाइन के पास किसी की चप्‍पल सीते या जूतों में कीलें ठोकते नजर आते तो उनसे कोई डर नहीं लगता था। शायद इसकी वजह यह थी कि हमें उनसे दिन में डरना नहीं सिखाया गया था। दिन में बच्‍चों के लिए बिहारी एक आम मोची से ज्यादा कुछ नहीं थे। नाटा कद ,काले कलूटे चेहरे,गंजे हो चुके सिर और मैले कपडों के वावजूद दिन में हमारे पास बिहारी से डरने की कोई वजह नहीं थी। बालपन भी अजीब होता है जो बात मन बैठा दी जाती है उसे दिमाग स्‍वीकार कर लेता है और उसके इतर कुछ नही सोचता। दिन में उनके कामकाज व व्‍यवहार को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वे वही है जिनका प्रलाप सुनकर लोग रात में भयभीत हो जाते थे। कोई कुछ भी कहे सिर झुकाए सुन लेते थे। उनका अंदाज निराला था कितनी बार पडोस के गांव के पंडितो ने उनको पीटा लेकिन वे मरते दम तक रात में अपनी भूत खोलने की आदत से बाज नहीं आए।
बिहारी हमारे गांव के बाहर बसी दलित बस्ती में रहते थे। इस बस्ती में और भी दलित परिवार थे लेकिन बिहारी में एक खास बात थी जो उन्‍हें उस बस्‍ती के बाकी लोगों से अलग बनाती थी। उनकी बस्‍ती के सभी दलित परिवार जहां जमीदारों व किसानों पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर थे वहीं बिहारी को मैने कभी भी किसी से कुछ मांगते हुए नहीं देखा। सुबह होते ही वह अपना थैला उठाए चौबेपुर बाजार की और चल देते थे और देर शाम ढलते वापस लौटते। आधी रात होते ही हरसू बरम बाबा के पास भुतवा खुलवाने के लिए बांग देने चल पडते थे। जाडे की कंपकपां देने वाले सर्दी और घनघोर बारिश में भी उन्‍होने कभी रात में बरम बाबा के पास जाने में कोताही नहीं बरती । बचपन में यह बात समझ में नहीं आती थी कि आखिर वह भूत खोलना क्‍यों चाहते थे। कभी यह जानने की काशिश भी नहीं की। उस समय तो बस इतना पता था कि जब बिहारी रात में भूत खोलने के लिए चिल्‍लाएं तो डर जाना है। बडा होने पर शहर में ज्‍यादा रहना हुआ। गांव कभी कभार जाना हो पाता था। धीरे- धीरे मानस पटल से बिहारी की याद भी मिटती चली गई।
बोर्ड की परीक्षा देने के बाद गर्मियों में जब गांव जाना हुआ तो रात में साते समय बिहारी की चर्चा छिड गई, उसी दौरान पता चला की दो माह पहले उनकी मौत हो गई। उस रात पहली बार बिहारी के बारे में देर रात तक सोचता रहा कि वह रात में क्‍यों भूत खोलने के लिए चिल्‍लाते थे। क्‍या बरम बाबा ने उनकी गुहार पर कोई भूत छोडा। यदि भूत छोडा तो वह कहां होगा। क्‍या वह बिकापुर के बरम बाबा के मंदिर के पास वाले मैदान से लेकर रेलवे लाईन तक रात में बिहारी की तरह ही छलांगे मार कर घुमता होगा। यदि ऐसा नहीं है तो आखिर क्‍यों बिहारी ने अपने इतने साल इस काम में जाया किया। मेरे मन में विचारों का ऐसा सिलसिला उठा कि रूकने का नाम ही नहीं ले रहा था। विचारों के झंझावात के बीच कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। सुबह देर से उठा लेकिन बिहारी की मौत की खबर और उससे जुडे सवाल जो रात मे मेरे मन उठे थे जेहन में ताजा थे।
बकौल मेरी दादी, बिहारी कभी मुम्‍बई में काम करते थे। उन दिनों मेरे और आसपास के गांवों के लोग जो ज्‍यादा पढ नहीं पाए पैसा कमाने के लिए मुम्‍बई ही उनको मुफीद जगह नजर आती थी। गांव के हर वर्ग और हर जाति के लोग महनगरी ट्रेन के जनरल डब्‍बे में बोरी की तरह लद कर मुम्‍बई जाते और आते रहते थे। जब कोई वहां से गांव आ रहा होता था तो लोग एक दूसरे के माध्‍यम से अपने परिजनो को रूपये और कपडे लत्‍ते भेजते रहते थे। हमारे गांव के लोग वैसे तो छूआ- छूत, छोटी जाति व बडी जाति में पूरा यकीन रखते थे लेकिन मुम्‍बई जाते ही वहां पर सभी लोगों के बीच ऐसी सामाजिक समरसता कायम हो जाती थी कि यह पता लगाना मुश्किल हो जाता था कि किसकी क्‍या जाति है। मानों मुम्‍बई में यह बात मायने ही नहीं रखती थी कि कौन किस जाति का है। चाहे नाई हो,धोबी हो,लुहार हो या दलित सबकी पहचान यही होती थी कि वे कहां के रहने वाले हैं और कहां क्‍या काम करते हैं। शायद ऐसा इस वजह से भी था कि परदेश में जान पहचान का संकट होता है और असुरक्षा की भावना लोगों को संगठित कर देती है। गांव के बडे बुजुर्गों को हमेशा यही डर सताता रहता कि कहीं उनके बच्‍चे अपना धर्म न भ्रष्‍ट कर लें। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। मुम्‍बई से गांव लौटते ही लोग अपनी- अपनी जातियों के टापुओं पर टुकडियों में बंटे हुए दिखाई देते।
यह तो हुई गांव की बात। हम बिहारी की ओर लौटते हैं।मुम्‍बई में ही बिहारी के गांव के एक पंडित जी भी काम करते थे जब वह गाव जाने लगे तो बिहारी ने उनके हाथ अपने परिजनों को देने के लिए कुछ रूपये और सामान दिया जो उसने बडी मेहनत करने के बाद कमाएं थे। पंडित जी गांव लौटे तो अपने घर परिवार और खेत खलिहान में व्‍यस्‍त हो गए। उन्‍हें याद भी नहीं रहर कि बिहारी ने जो थाती सौंपी थी उसे उसके परिजनो को लौटाना भी है। धीरे-धीरे उनकी मुम्‍बई की कमाई भी खर्च हो गई। उन्‍होंने गांव में ही रह कर पंडिताई को अपना पेशा बना लिया जो चल निकली। कई साल बीत गए। उध्‍ार मुम्‍बई में बिहारी बिमारी की वजह से अपना गुजर- बसर मुश्किल से कर पा रहा था,ऐसे में उसने यह सोचकर गांव जाना मुनासिब समझा कि जो रूपये उसने घर भिजवाए थे उसी के सहारे वहां जीवन यापन कर लेगा। जब वह गांव लौटा तो यह जानकर उसके पैरों तले से जमीन निकल गई कि उसने जो रुपये पंडित जी के हाथ घर वालों को भेजा था उन्‍होंने दिए ही नहीं। जब वह इसका तगादा करने पंडित जी के पास गया तो उन्‍होंने रुपये देने से मना कर दिया और कहा कि तुमने दिए ही कब थे। बिहारी भी कहां मानने वाला था उसने आसमान सिर पर उठा लिया और घूम- घूम कर पंडित जी कारनामे से लोगों को अवगत कराने लगा। पंडित जी के पास तो हया और शरम तो थी नहीं लेकिन उनकी जाति के लोगों को यह नागवार गुजरती थी कि कोई दलित जाति का व्‍यक्ति उनकी जाति की बदनामी करे। काफी हीलहुज्‍जत के बाद आखिर यह तय हुआ कि बम्‍बइया पंडित जी बरम बाबा के मंदिर में हलफ उठाएं। हलफ प्रक्रिया के बारे में ऐसी मान्‍यता है कि जो भी झूठी हलफ उठाता है उसे भगवान अवश्‍य दंडित करते हैं।के बारे में ऐसी मान्‍यता है कि जो भी झूठी हलफ उठाता है उसे भगवान अवश्‍य दंडित करते हैं। इस प्रक्रिया के तहत मंदिर में जाकर हाथ में जल लेकर कसम खानी पडती है कि व्‍यक्ति जो कह रहा है सच कह रहा है, यदि वह झूठ बोल रहा हो तो उसके बच्‍चे मर जाएं या उसका सब कुछ नष्‍ट हो जाए। इस आशय का प्रस्‍ताव जब गांव वालों ने बम्‍बइया पंडित जी को दिया तो वह भडक उठे कि किसने देखा था कि मुझे बिहारी ने रूपये दिए थे। झूठ बिहारी बोल रहा है ,मै हलफ क्‍यों उठाऊ। कसम खानी है तो बिहारी खाएं। बिहारी इसके लिए तैयार भी हो गया लेकिन धर्म आडे आ गया। दलित जाति का होने के नाते वह पंडितों के सामने वो भी बरम बाबा के मंदिर में कसम कैसे खा सकता था। उस समय सवर्णो के मंदिर में दलितों का प्रवेश वर्जित था इसलिए बिहारी के मंदिर में प्रवेश करने भर से मंदिर तो अशुद्व होता ही धर्म भी भ्रष्‍ट हो जाता और यह कलंक लेने के लिए कोई तैयार नहीं था। आखिर काफी हीलहुज्‍जत के बाद बम्‍बइया पंडित जी मजबूरी में इसके लिए तैयार तो हो गए लेकिन धर्म व ईश्‍वर में उनकी गहरी आस्‍था थी। उनके लिए मुश्किल ये थी कि कसम खकर झूठ बोलते हैं तो भगवान का कोपभजन बनना पडेगा और यदि सच बोलते हैं तो लोग उन्‍हें झूठा समझेंगे और इसका प्रभाव उनके जजमानों पर पडेगा जिसके सहारे अपने परिवार का जीविकोपार्जन करते हैं।

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