Monday, December 23, 2019

लेनिन की प्रतिमा के बहाने राजनीति खतरनाक है

त्रिपुरा में भाजपा की भारी जीत के बाद वहां व्लादिमीर लेनिन की प्रतिमा ढहाने की घटना के बाद अब दूसरे राज्यों में भी राजनीतिक दलों व राज्‍य के प्रतीक बन चुके अन्‍य नेताओं और विचारकों की प्रतिमाओं पर हमले की घटनाएं सामने आ रही हैं। भाजपा के एक नेता ने तो बकायदा फेसबुक पर पोस्ट डालकर तमिलनाडु में पेरियार की प्रतिमाओं को तोड़ने की धमकी दी थी। सभी राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से अब इन घटनाओं की निंदा भले कर रहे हों, लेकिन अब यह मामला तूल पकड रहा है। लेनिन की प्रतिमा से शुरू हुआ यह सिलसिला पेरियार और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की प्रतिमाओं को निशाना बनाने के बाद थम जाएगा ऐसा लगता नहीं है।
भारत में हाल के वर्षों में प्रतिमाओं की भूमिका राजनीतिक महत्‍व को रेखांकित करने की ज्‍यादा रही है। देश का शायद ही कोई ऐसा राज्‍य हो जहां कभी भी सत्‍ता में रहे दलों के नेताओं या उनके राजनीतिक विचारों को प्रतिपादित करने वाले नेताओं की प्रतिमाएं बड़ी संख्‍या में न स्‍थापित की गई हों। यह अलग बात है कि समर्थक जन्‍मदिन आदि पर इन प्रतिमाओं पर पुष्‍प हार चढाते हैं तो विराधी गुस्‍से में जूते और चप्‍पल की माला। देखा जाए तो यह कोई नई बात नहीं है जब नेताओं और महापुरुषों की प्रतिमाओं का अनादर हुआ हो। राजनीतिक फायदे और नुकसान के लिए पहले भी प्रतिमाओं की राजनीति होती रही है। यह अलग बात है कि इस बार बवाल एक ऐसे साम्‍यवादी विदेशी नेता की प्रतिमा को लेकर हुआ है जो अपने देश में ही अप्रासंगिक हैं और साम्‍यवादी दौर की समाप्ति के बाद वहां भी उनकी प्रतिमाओं को उखाड फेंकने की घटनाएं हुईं थीं।
महत्‍वपूर्ण सवाल यह है कि क्‍या ऐसे किसी विदेशी नेता की प्रतिमा के लिए भारत में कोई स्‍थान होना चाहिए? ऐसा केवल अपने देश में ही हो सकता है क्‍योंकि एक राजनीतिक पार्टी उन्‍हें अपना आदर्श मानती है। चुनाव दर चुनाव देश की जनता भी लेनिन को मानने वाली पार्टी को नकार रही है, लेकिन उन्‍हें लगता है कि उनकी विचारधारा और पार्टी अब भी प्रासंगिक है। ध्‍यान देने वाली बात है कि चीन में माओ का भी मानमर्दन हो चुका है।
हमारे देश में सबसे अधिक प्रतिमाएं यदि किसी की स्‍थापित हैं तो वे हैं भीमराव अंबेडकर। देश के गांवों और चौक चौराहों, शहर के दलित बहुल क्षेत्रों और सरकारी प्रतिष्‍ठानों तक में उनकी प्रतिमाएं दिख जाएंगी। देश की एक पार्टी उन्‍हें अपनी विचारधारा का प्रती‍क बताती है। महात्‍मा गांधी से लेकर सरदार पटेल तक की प्रतिमाओं पर किसी न किसी राजनीतिक पार्टी का कॉपीराइट है। जबकि ये महापुरूष देश के गौरव का प्रतीक हैं किसी राजनीतिक दल के नहीं। कई नेताओं ने तो अपने जीते जी ही अपनी प्रतिमाएं बनवा लीं। इस मामले में मायावती भले ही ज्‍यादा बदनाम हैं, जिन्‍होंने करोडों रुपये खर्च कर उत्‍तर प्रदेश में स्‍मारकों के नाम पर अपनी और कांशीराम की प्रतिमाएं स्‍थापित करवाई, लेकिन कांग्रेस के नेता भी पीछे नहीं हैं। 60 के दशक में तमिलनाडु के एक बड़े नेता कामराज ने भी जिंदा रहते ही अपनी प्रमिता स्‍थापित करवा दी और उसका जवाहरलाल नेहरू से उद्घाटन भी करवा लिया।
विचारणीय प्रश्‍न यह है कि इन प्रतिमाओं और स्‍मारकों के लिए पैसा कहां से आता है? आजकल केंद्र से लेकर राज्‍य सरकारें अपनी योजनाओं में अपने दलों से जुड़े लोगों की प्रतिमाओं के लिए लाखों करोडों रुपये का प्रावधान करती हैं। जाहिर है यह पैसा जनता के गाढ़े खून और पसीने की कमाई है, जो वह टैक्‍स के रूप में सरकार को अदा करती है। यह पैसा विकास कार्यों में न खर्च कर राजनीतिक दलों के प्रतीकों की प्रतिमाएं स्‍थापित करने में खर्च होगा तो इससे जनता को क्‍या फायदा होगा। हमारे नेता सामंती राजाओं की तरह व्‍यवहार कर रहे हैं जो उचित नहीं है। इस तरह की राजनीति से किसी का भी हित नहीं होने वाला है। सही तो यह होगा कि सभी राजनीतिक दल प्रतीक और प्रतिमाओं की राजनीति से ऊपर उठकर विकास की राजनीति को महत्‍व दें नहीं तो भविष्‍य में इसके नतीजे और खतरनाक होंगे।

राजनीति चमकाने के लिए उत्तर भारतीयों पर हमला करवाते हैं राज ठाकरे

महाराष्ट्र के सांगली से मनसे के कार्यकर्ताओं का एक वीडियो सामने आया है, जिसमें वो उत्तर भारतीयों की सड़क पर दौड़ा-दौड़ाकर पिटाई कर रहे हैं। बताया जा रहा है कि इन दिनों राज ठाकरे की पार्टी मनसे ने 'लाठी चलाओ भैय्या हटाओ’ नाम से पर-प्रांतीयों को हटाने की एक मुहिम शुरू की है, जिसके तहत पार्टी के कार्यकर्ता लाठी डंडे से लैस होकर समूह में निकल रहे हैं और उन्हें सडक पर जहां भी उत्तर भारत के लोग दिखाई दे रहे हैं उनकी बेरहमी से डंडों और लात–घूसों से पिटाई करना शुरू कर देते हैं। वीडियो देखने के बाद मन में यह सवाल उठता है कि महाराष्ट्र में अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने की कोशिश में जुटे राज ठाकरे मुंह के बल गिरने के बाद भी आखिर इस तरह की घृणा फैलाने की राजनीति से बाज क्यों नहीं आ रहे।
 मनसे की क्षेत्रीयतावाद और प्रांतीयतावाद की संकीर्ण राजनीति को मराठी जनता पहले ही नकार चुकी है। एक राजनीतिक दल के रूप मनसे की नीतियां खारिज हो चुकी हैं, लेकिन इसके बाद भी राज ठाकरे हमेशा राष्ट्रीय भावनाओं को आहत करने वाली गतिविधियों के केंद्र में बने रहना पसंद करते हैं। उन्हें लगता है कि अराजकता को आधार बनाकर ही अपना राजनीतिक मकसद पूरा कर सकते हैं। हमारे देश का संविधान किसी भी नागरिक को देश में कहीं भी बसने और रोजगार करने का अधिकार प्रदान करता है, लेकिन राज ठाकरे जैसे लोग संविधान की भी परवाह नहीं करते। उनकी मंशा सदैव यही रहती है कि मराठी मानुष की बात कर किस तरह से मराठियों में उत्तर भारतीय संस्कृति से विद्वेष की प्रवृत्ति पैदा की जाए।
 देखा जाए तो इस तरह का कोई भी प्रयत्न सांझी संस्कृ्ति की विरासत और सामाजिक समरसता के लिए काफी खतरनाक हो सकता है। लोकतंत्र में चाहे वह राजनीतिक दल हों या कोई व्यक्ति सभी को आपनी मांगों के लिए शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन करने और धरने पर बैठने का अधिकार है, लेकिन जब कोई प्रदर्शन और धरना हिंसक रूप ले और आराजक हो जाए तो इसे लोकतंत्र व संविधान पर एक तरह का प्रहार ही माना जाएगा। 
यह पहला मौका नहीं है जब मनसे ने उत्तर भारतीयों को निशाना बनाया है। एक दशक से वह और उनकी पार्टी उत्तर भारतीयों समेत अन्य पर-प्रांतीय लोगों के खिलाफ हमलावर हैं। यह हैरानी की बात है कि कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में भी उनकी पार्टी के लोग नफरत की राजनीति करते थे, क्षेत्रवाद को बढावा देते थे और जब चाहे आंदोलन के नाम पर उत्तर भारतीयों पीटते थे। महाराष्ट्र में अब भाजपा की सरकार है और राज ठाकरे राजनीतिक रूप से हासिये पर भी हैं, लेकिन उनके तेवरों में कोई कमी नहीं आई है, क्योंकि वह और उनकी पार्टी शासन और प्रशासन से ज्यादा ताकतवर हैं।दरअसल सरकार की ओर से उनके खिलाफ कोई कार्रवाई न किए जाने के कारण ही उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ा हुआ है और वे जब चाहते हैं उत्तर भारत के लोगों के साथ आंदोलन के नाम पर मारपीट करने लगते हैं। जाहिर है कि जब तक इस तरह के मामलों को लेकर सरकार और प्रशासन का रवैया उदासीन रहेगा, उत्तर भारतीयों के साथ मारपीट की घटनाओं की पुनरावृत्ति होती रहेगी।
 इस संबंध में महाराष्ट्र की सरकारें किस कदर उदासीन रही हैं इसका अंदाजा इसी बात से हो जाता है कि वर्ष 2008 में उत्तर भारतीयों पर हो रहे हमलों के मद्देनज़र कोई कार्रवाई न होने पर सर्वोच्च न्यायालय को खुद इसका संज्ञान लेकर महाराष्ट्र सरकार को नोटिस जारी करना पड़ा था। कुछ दिनों तक इसका असर भी देखने को मिला। राज ठाकरे उत्तर भारतीयों के खिलाफ नफरत फैलाने वाले बयानों से दूर रहे, लेकिन जैसे ही मामला ठंडा पड़ा एक बार ‍फिर वह पुरानी राह पर चल पड़े हैं। उन्हें लगता है कि क्षेत्रीयता को बढ़ावा देकर वे अपना खोया राजनीतिक जनाधार दोबारा हासिल कर सकते हैं। यह उनकी हताशा को ही दर्शाता है कि इन दिनों वे महाराष्ट्र की हर समस्या और हादसे के लिए उत्तर भारतीयों को जिम्मेदार बता रहे हैं। हद तो तब हो गई जब उन्होंने गत दिवस मुंबई के एलफिंस्टन रेलवे स्टेशन पर फुटओवर ब्रिज हादसे के लिए भी दूसरे राज्यों से आए लोगों को उत्तरदायी बताकर राजनीति करने की कोशिश की। उनका कहना है कि बाहरी लोगों की वजह से मुंबई में भीड़ बढ़ी और जब दूसरे राज्यों से लोग मुंबई आते रहेंगे, हादसे होते रहेंगे। राज ठाकरे के मुताबिक दूसरे राज्यों के लोगों को मुंबई नहीं आना चाहिए। क्या मुंबई भारत का हिस्सा नहीं, राज ठाकरे की जागीर है। महाराष्ट्र के नवनिर्माण में उत्तर भारतीयों का भी खून पसीना लगा हुआ है, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता।
यदि मराठियों के लिए दूसरे राज्य के नेता भी उनकी ही भाषा बोलने लगें तो स्थिति काफी भयावह हो जाएगी। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राज ठाकरे की इस तरह की राजनीति पर अंकुश लगाने के लिए राजनीतिक, समाजिक और सरकारी स्तर पर कोई कदम नहीं उठाया जा रहा है। इसके दीर्घकालिक नतीजे काफी खतरनाक हो सकते हैं। सही तो यह होगा कि राज ठाकरे और उनकी पार्टी इस बात को समझे कि ऐसी राजनीति से न तो उनका भला होने वाला है और न ही महाराष्ट्र का। सरकार और प्रशासन को भी चाहिए कि वह उत्तर भारतीयों के खिलाफ की जा रही किसी भी तरह की हिंसा के खिलाफ कड़ाई से निपटे। देश को तोड़ने की राजनीति का कोई भी समर्थन घातक ही साबित होगा।

Friday, April 29, 2016

झारखंड ने दिखाई राह

यह अपने आप में वाकई अजूबा प्रयोग है। पहले सचिवालय के वातानुकूलित कमरों में सुदूर गांव-देहात की योजनाएं बनती थीं। हश्र यह होता था कि पैसे की बंदरबांट होती थी और लोगों को सुविधाएं भी नहीं मिल पाती थीं। मुख्यमंत्री रघुवर दास ने पहल करते हुए यह तय किया कि गांव की योजनाएं गांव के लोग ही मिलकर बनाएंगे। ग्राम समिति यह फैसला लेगी कि प्राथमिकता कैसे निर्धारित की जाए। उन्होंने खुद ज्यादातर जिलों के सुदूर इलाकों का भ्रमण किया। साथ में आला अधिकारी भी गए। जमीन पर चादर बिछाकर चौपाल सजी। योजनाएं वहीं तैयार की गईं। इसका परिणाम यह हुआ कि प्रधानमंत्री कार्यालय तक जब इस अभिनव प्रयोग की जानकारी पहुंची तो झारखंड की वाहवाही हुई। इस राह को अपनाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी आह्वान किया कि गांवों-पंचायतों के लिए पैसे की कमी नहीं है। जरूरत है कि ग्राम सभाएं यह तय करे कि उन्हें किन योजनाओं को प्राथमिकताएं देनी है। 124 अप्रैल को जमशेदपुर में आयोजित पंचायती राज सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने झारखंड सरकार के बजट बनाओ अभियान का जिक्र किया। अभियान की सराहना की और कहा कि एक कदम आगे बढ़कर कृषि के लिए अलग बजट तैयार करना और सिंगल विंडो सिस्टम विकसित करना राह दिखाता है। वाकई पिछड़े प्रदेशों में शुमार झारखंड ने हाल के महीनों में कुछ ऐसी प्रसिद्धि पाई है जो इसे बीमार प्रदेश से विकसित प्रदेश बनाने की दिशा में मददगार होगी। गांवों में योजनाएं फलीभूत होंगी, लोगों को रोजगार मिलेगा तो एक झटके में कई योजनाओं का समाधान भी हो जाएगा। नेतृत्व की दूरदृष्टि इसी से प्रमाणित होती है। पहले ऐसा समेकित प्रयास कहीं नहीं हुआ। देशभर में छिटपुट प्रयास अवश्य हुए लेकिन महज छह माह की कवायद में झारखंड के पंचायती राज प्रतिनिधियों ने दस लाख से ज्यादा योजनाओं का चयन कर इसे सरकार के समक्ष पेश कर दिया। यह सरकार की इच्छाशक्ति का ही नतीजा है जो राज्य को विकास के पथ पर तेजी से आगे ले जाने के साथ-साथ झारखंड के बारे में प्रचलित अवधारणा को समाप्त करने में भी मददगार साबित हो रहा है। ‘सबका साथ-सबका विकास’ का मूल मकसद भी यही है कि सबकी सहभागिता महती कार्यक्रमों में हो। हम सिर्फ अपनी बातें या विचार थोप कर जिम्मेदारी से भाग नहीं सकते। 1योजना बनाओ अभियान की राज्य में अपार सफलता का ही परिणाम था कि प्रधानमंत्री ने देशभर की पंचायतों को संबोधित करने के लिए झारखंड का चयन किया। इससे पहले पंचायती राज दिवस का औपचारिक कार्यक्रम नई दिल्ली के विज्ञान भवन में करने की परंपरा रही है लेकिन प्रधानमंत्री ने जमशेदपुर में कहा कि दिल्ली देश नहीं है। देश को अगर मजबूत बनाना है तो गांवों को मजबूत करना होगा। यह गांवों को विविध योजनाओं के जरिए सशक्त करने की झारखंड सरकार की मुहिम का प्रतिफल था कि झारखंड को देशभर के 3000 चुनिंदा पंचायती राज प्रतिनिधियों ने करीब से देखा। जानकारी भी हासिल की कि कैसे यहां आदिवासी स्वशासन व्यवस्था के तहत पंचायतें कारगर भूमिका निभाती हैं। यह आम बजट में गांवों पर फोकस करने की अगली कड़ी है कि तमाम योजनाओं का सूत्रपात ग्रामीण इलाकों से हो। हम वहां ज्यादा फोकस करें जो उत्पादन में अपना अमूल्य योगदान देता है लेकिन संसाधनों के इस्तेमाल में पिछड़ा है। ज्यादातर गांव बुनियादी जरूरतों से भी वंचित हैं। गांव-शहर की यह खाई अगर समय रहते कम नहीं की गई तो इससे विसंगतियां बढ़ेंगी। नक्सलियों की धमक इसकी एक बानगी भर है। अगर गांव तक बुनियादी सुविधाओं के साथ-साथ अन्य संसाधन और रोजगार के अवसर पहुंचे तो हर हाथ को वहीं काम मिल जाएगा। खेती की सुविधाएं बढ़ीं और आधुनिक तकनीक पर आधारित कृषि का प्रचलन तेज हुआ तो झारखंड की उत्पादकता भी बढ़ेगी जो अभी तक सिर्फ वर्षा जल और पारंपरिक खेती पर निर्भर है। इससे पूर्व हजारीबाग में कृषि विज्ञान केंद्र की आधारशिला रख केंद्र सरकार ने यह संदेश दिया था कि अगली हरित क्रांति का सूत्रपात पूर्वी भारत से ही होगा और झारखंड इसमें महती भूमिका अदा करेगा। इसकी इच्छाशक्ति राज्य में दिख रही है, इसलिए परिणाम भी सकारात्मक आएंगे। सिंचाई संसाधनों का बेहतर उपयोग, विषम भौगोलिक परिस्थिति के मुताबिक कृषि, बंजर भूमि पर कल-कारखाने समेत अन्य संसाधनों का विकास समय की जरूरत है। जब ग्रामीण खुद अपनी योजनाएं तैयार करेंगे तो ऐसी स्थिति की गुंजाइश नहीं के बराबर होगी। राज्य सरकार ने स्थानीय योजनाओं के अनुश्रवण की जिम्मेदारी भी पंचायती राज प्रतिनिधियों को दी है। इसका भी सख्ती से पालन किया जाना चाहिए। अधिकारी अपना लक्ष्य पूरा करने के लिए फर्जी जानकारी सरकार को उपलब्ध कराते रहे हैं। ग्रामीण विद्युतीकरण के कार्य में इसका खुलासा हुआ है। स्वयं पीएमओ भी इसे लेकर सतर्क है कि कामकाज पर निगाह पंचायती राज प्रतिनिधि रखें और सही जानकारी प्रशासन को मुहैया कराएं। यह अत्यंत आवश्यक है। योजनाओं को अगर पंचायतों के जरिए धरातल पर उतारा जाता है तो बिचौलियों की भूमिका नगण्य हो जाएगी। मुख्यमंत्री रघुवर दास भी इस पक्ष में हैं कि बिचौलियों की दखलंदाजी बंद की जाए और काम सीधे पंचायतों के जरिए कराए जाएं। पहले चरण में राज्य में तमाम पंचायतों का सचिवालय बनाने का फरमान जारी किया गया है। चालू वित्तीय वर्ष में यह काम पूरा हो जाएगा तो पंचायतों की अनदेखी नहीं होगी। पंचायतों को विविध 29 विभागों की शक्तियां प्रदान की गई हैं। यह भी ख्याल रखना होगा कि भारी मात्र में धन की उपलब्धता का दुरुपयोग नहीं हो। 14वें वित्त आयोग ने इसकी सिफारिश की है जिसमें झारखंड को हजारों करोड़ की राशि मिलेगी। इसका सही इस्तेमाल करने के संबंध में भी राज्य सरकार ने सतर्क किया है। योजना बनाओ अभियान के दौरान मुख्यमंत्री भी इसकी जानकारी दे रहे हैं कि धन का गलत इस्तेमाल नहीं हो वरना प्रतिनिधियों को कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ेगा। झारखंड सरकार का गांवों में गांव के लोगों के लिए योजनाएं बनाने का प्रयास दूसरे राज्यों के लिए नजीर पेश कर रहा है। यह अधिकारियों की जिम्मेदारी है कि जो योजनाएं पंचायतों के स्तर पर बनाई गई हैं उसे सूचीबद्ध कर प्राथमिकता के मुताबिक धरातल पर उतारें। इससे आगे भी प्रशासनिक कामकाज में सहूलियत होगी। एक झटके में योजना बनाओ अभियान एक वृहद डाटा तैयार करने में मददगार साबित हुआ है जो विविध भौगोलिक पृष्ठभूमि वाले झारखंड के लिए मुश्किल भरा काम था। इस प्रयास ने यह भी प्रमाणित किया है कि सुशासन के लिए दूरदृष्टि अनिवार्य है और कल्याणकारी सत्ता के लिए यह आवश्यक है कि जटिलताएं कम से कम हों और लोगों को सहूलियतें मिलें ताकि उनका जीवनस्तर सरल और बेहतर हो। झारखंड की यह योजना अन्य दूसरे राज्यों ने अपनाई तो इससे राज्य के मान में वृद्धि होगी। कम से कम झारखंड ने इस मामले में एक राह तो अवश्य दिखाई है।

Saturday, July 11, 2015

झारखंड में भ्रष्टाचार

झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास का एक बयान इन दिनों चर्चा में है। उनका कहना है कि बीते 15 साल में राज्य में इतने घोटाले हुए हैं कि अगर उनकी जांच कराई जाए तो पांच साल निकल जाएगा। वे जहां हाथ डाल रहे हैं, वहीं भ्रष्टाचार दिख रहा है। मुख्यमंत्री की यह साफगोई विपक्ष अपने चश्मे में देख रहा है, क्योंकि इसमें उसे राजनीतिक फायदा नजर आ रहा है, लेकिन इससे इतर मुख्यमंत्री के बयान को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश भी करनी होगी। विपक्ष इसे मुद्दा बना रहा है कि बीते 15 साल में सबसे ज्यादा वक्त तक राज्य में भाजपानीत गठबंधन सरकारों का राज रहा। इस लिहाज से मुख्यमंत्री अपने ही दल को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं, लेकिन 15 सालों का आकलन कर देखें तो झारखंड की छवि एक दिन में तार-तार नहीं हुई। झारखंड को कमीशनखंड तक कहा जाता रहा। ये परिस्थितियां कैसे पैदा हुई? जब बिहार से यह प्रांत अलग हुआ तो बाबूलाल मरांडी पहले मुख्यमंत्री बने। उन्होंने राज्य में मौजूदा संसाधनों को विकसित करने की पहल आरंभ की, पर दुर्भाग्य से राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी बनीं कि उन्हें सत्ता से बाहर होना पड़ा। इसके बावजूद सत्ता की बागडोर भाजपा के हाथ में ही रही। अजरुन मुंडा ने सबसे ज्यादा समय तक सूबे पर राज किया, लेकिन उनपर भ्रष्टाचार का ऐसा कोई आरोप नहीं है, जिसमें उनकी संलिप्तता सामने आई हो। 1इससे इतर येन-केन-प्रकारेण झारखंड की सत्ता हथियाने वाले क्षेत्रीय दलों की राजनीति और उसकी आड़ में खुद को पनपने का मौका देखने वाली राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस की गतिविधियां संदेह के घेरे में अवश्य आई। कांग्रेस ने एक निर्दलीय को समर्थन देकर इतिहास रच डाला। यही वह दौर था, जब सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार की शिकायतें प्रमाण के साथ सामने आईं। खुद निर्दलीय सरकार के मुखिया रहे मधु कोड़ा को इस आरोप में जेल जाना पड़ा। उनकी मंत्रिपरिषद के अधिकांश सदस्यों पर आज भी इससे संबंधित मामले चल रहे हैं। दो पूर्व मंत्री अभी भी जेल में हैं। आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने वाले पूर्व मंत्रियों की संपत्ति तक जब्त करने की कार्रवाई प्रवर्तन निदेशालय कर चुका है। इस दौरान झारखंड संस्थागत भ्रष्टाचार का शिकार बनकर जिस बुरी तरह बदनाम हुआ, वह बदनुमा दाग आज भी राज्य के माथे पर है। यह दाग मिटाना एक बड़ी चुनौती है, जिसे पहली बार बहुमत सरकार के मुखिया बने रघुवर दास ने अभी तक साबित भी कर दिखाया है। छह माह का उनका कार्यकाल बेदाग रहा है। मंत्रिमंडल के किसी सदस्य पर कोई आरोप नहीं है, यह एक बानगी है कि प्रदेश पटरी पर धीरे-धीरे ही सही, लौट रहा है। भ्रष्टाचार पर शिकंजा कसने के प्रयास का ही प्रतिफल है कि इतने कम समय में कई अधिकारी और कर्मी भ्रष्ट आरोपों में पकड़े गए हैं। मुख्यमंत्री ने निगरानी ब्यूरो को भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के रूप में विकसित कर यह संदेश दिया है कि गलत आचरण बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और जो ऐसा करने का दुस्साहस करेगा, वह कानून के शिकंजे में होगा। भ्रष्टाचार प्रमाणित होने पर संपत्ति जब्त करने का कानून भी राज्य सरकार बना रही है।1इन तमाम दृष्टांतों से अलग बहुमत की सरकार बनने के बावजूद काम की जो गति है, वह रफ्तार नहीं पकड़ पा रही है तो इसकी एक बड़ी वजह राज्य की नौकरशाही है। यह ध्यान रखना होगा कि विभागीय भ्रष्टाचार के बावजूद बीते 15 साल में कितने नौकरशाह भ्रष्टाचार के आरोप में सलाखों के भीतर गए, जबकि इनकी जिम्मेदारी राज्य को पटरी पर लाने की थी। दरअसल अल्प बहुमत वाली सरकारों के साथ काम कर खुद को हमेशा हावी बनाए रखने की नौकरशाहों की मानसिकता अभी भी नहीं बदल रही है। यह ध्यान रखना होगा कि अब पूर्ण बहुमत की सरकार है और नौकरशाही को अपनी मानसिकता बदलनी होगी। सिर्फ दस से पांच बजे तक की ड्यूटी बजाकर हुक्मरान अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग सकते। हालांकि राज्य में ऐसे बहुतेरे अधिकारी हैं, जिनके दामन पर कोई दाग नहीं है और वे अच्छा काम भी कर रहे हैं। समस्या उन अफसरों से है, जो बदलने के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसे अधिकारियों को सोचना होगा कि सिर्फ हुक्म बजाने के लिए वे प्रशासनिक या पुलिस सेवाओं में नहीं आए हैं। अगर उनकी यह सोच है तो गलत है, राज्य के हित में नहीं है। कार्यपालिका को अपनी जिम्मेदारी का खुद अहसास करना होगा। नौकरशाही का काम केवल राज्य को चलाना भर नहीं है, बल्कि राज्य के भविष्य को बनाना भी उनका काम है। यह अच्छी बात है कि मुख्यमंत्री ने अपनी कोर टीम में ऐसे अधिकारियों को रखा है, जो नित्य विकास योजनाओं की ंिचंता कर रहे हैं। विभागों की समीक्षा हो रही है और जहां खामियां दिख रही हैं, उन्हें तत्परता से ठीक भी किया जा रहा है। दुर्भाग्य से राज्य में कार्यपालिका और विधायिका के बीच बहुत अच्छे संबंध नहीं रहे हंै, लेकिन वर्तमान सरकार के कार्यकाल में ऐसा कोई प्रकरण सामने नहीं आया है, जिससे यह प्रतीत होता हो कि राजनीतिक नेतृत्व के स्तर से नौकरशाही को प्रभावित करने की कोशिश की जा रही हो। यह कार्यपालिका को तय करना होगा कि 15 साल बाद जो मौका आया है, राज्य हित में उसका कैसे सदुपयोग करे। सकारात्मक पक्ष यह है कि मुख्यमंत्री भी कई बार इसे इंगित कर चुके हैं। वे अधिकारियों से सुझाव मांगते हैं और उसपर अमल भी करते हैं। स्वयं की प्रेरणा से भी काम करने की सलाह देते हैं। यह बेहतर मौका है कि राज्य की कार्यपालिका अपनी उपयोगिता को प्रमाणित करे, ताकि पूर्व में हुए दुर्भाग्यपूर्ण प्रकरणों की छाया हट जाए और राज्य की नौकरशाही का संवेदनशील और जिम्मेदार पक्ष लोगों के सम्मुख आए। 1राज्य में पहली बार बनी बहुमत की सरकार से लोगों को ढेर सारी अपेक्षाएं हैं। अगर ये अपेक्षाएं पूरी नहीं हुई तो इसका ठीकरा राजनीतिक नेतृत्व के मत्थे फोड़ा जाएगा। मुख्यमंत्री भी इस हकीकत से वाकिफ हैं और इस मायने में उनका बयान साहसिक है। इसका निहितार्थ समझने की कोशिश करनी होगी। क्षणिक राजनीतिक नफा-नुकसान से अलग उनकी पीड़ा है। यह पीड़ा उस राज्य की है, जो अभी भी अपनी अस्मिता और पहचान को पाने के संघर्ष में उलझा है। खुद को गर्व से झारखंडी कहने में संकोच करता है, क्योंकि उसके चेहरे पर भ्रष्टाचार का लेबल चस्पा कर दिया गया है। इस खंडित अस्मिता को पाने के लिए अगर पूरी ऊर्जा से झारखंड खड़ा होगा तो पीछे की तमाम अवधारणाएं पीछे ही छूट जाएगी। इस नई सोच के साथ राज्य को गढ़ने की मंशा पर अगर काम आरंभ हुआ है तो इसे मंजिल तक पहुंचाना ही होगा। झारखंड आज ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहां से कई रास्ते निकलते हैं। अब यह जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों के ऊपर है कि वे ऐसा रास्ता चुनें, जो राज्य को सुख-समृद्धि और खुशहाली की ओर ले जाए। वैसे मुख्यमंत्री को विकास में बाधक अफसरों के खिलाफ कार्रवाई का भी विकल्प खुला रखना होगा, ताकि काम काज की गति धीमी न पड़े। बहुमत की सरकार है। यदि इस बार चूक गए तो न राज्य की जनता माफ करेगी और न ही इतिहास।

Saturday, July 4, 2015

झारखंड में बिजली संकट

झारखंड सरकार इन दिनों बिजली की उपलब्धता को लेकर चिंता में डूबी है। यह सही भी है और वक्त की मांग भी। दुर्भाग्य से बीते 14 सालों में बिजली को लेकर बातें खूब हुईं। कागजों पर हजारों मेगावाट का उत्पादन हुआ, लेकिन कोई योजना धरातल पर नहीं उतर पाई। इसकी वजह राजनीतिक अस्थिरता को बताया जाता है, लेकिन सिर्फ राजनीतिक नेतृत्व के मत्थे इस कमी को मढ़ना ज्यादती होगी। सरकारें बदल जाती हैं, पर योजनाओं को आकार रूप देने का काम कार्यपालिका करती है। लिहाजा अधिकारियों को भी अपनी चूक का अहसास करना होगा। ऐसे वक्त में जब बिजली के बगैर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती तो आखिरकार किस संसाधन के भरोसे झारखंड को पटरी पर लाने का सपना पूरा होगा।1स्थिति चिंताजनक है और काम करने का यही वक्त है। जब जागें, तभी सवेरा। मुख्यमंत्री रघुवर दास इस दिशा में गंभीरता से कार्रवाई करते दिख रहे हैं। वे पूर्व में भी इस विभाग के मंत्री रहे हैं। उनका पुराना अनुभव कामकाज को दुरुस्त करने में सहायक सिद्ध होगा। उन्होंने बिजली उत्पादन के क्षेत्र में हाल ही में केंद्र सरकार के लोक उपक्रम नेशनल थर्मल पावर कार्पोरेशन (एनटीपीसी) के साथ करार किया है। इसके तहत एनटीपीसी राज्य सरकार की जर्जर बिजली उत्पादन इकाई पतरातू थर्मल पावर स्टेशन (पीटीपीएस) की कमान अपने हाथ में लेगी। रूसी तकनीक पर इस ताप विद्युत इकाई की स्थापना 70 के दशक में हुई थी। फिलहाल इसे फिर से दुरुस्त करना कठिन काम है। एनटीपीसी यहां क्रमबद्ध तरीके से नए पावर प्लांट की भी स्थापना करेगी। अगर इस योजना पर काम आगे बढ़े तो बिजली की उपलब्धता राज्य में होगी। हालांकि फिलहाल यह काम मंद गति से चल रहा है और आरंभिक स्टेज में है। एनटीपीसी के अधिकारी मौजूदा संसाधनों का आकलन कर रहे हैं। यहां से तत्काल किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं की जा सकती। 1ऐसा नहीं है कि राज्य में बिजली को लेकर लंबीचौड़ी योजनाएं नहीं बनीं। कालांतर में कई निवेशकों ने इसमें रुचि भी दिखाई, लेकिन हतोत्साहित होकर भाग खड़े हुए। रिलांयस पावर ने हाल ही में अपनी योजना से हाथ खींच लिया। यह महती योजना धरातल पर उतरती तो करार के मुताबिक राज्य को कुल उत्पादन का 25 फीसद बिजली काफी कम दर पर मिल जाती। खैर, अब नए सिरे से प्रयास इस ढंग से हो कि उनका हश्र पुरानी योजनाएं जैसी नहीं हो। 1बिजली के क्षेत्र में बीते डेढ़ दशक की उपलब्धियां घोर निराशा पैदा करती हैं। सारे संयंत्र पुराने हैं और तकनीकी खामियों के दौर से गुजर रहे हैं। बिजली को सबसे बड़ा झटका नेता, अधिकारी और ठेकेदारों की साठगांठ ने दिया है। झारखंड राज्य विद्युत बोर्ड (अब इसकी चार स्वतंत्र कंपनियां हैं) को घोटाला बोर्ड के नाम से ज्यादा जाना जाता है। एक पूर्व मुख्यमंत्री को यहां हुए घोटालों की वजह से लंबी जेल यात्र करनी पड़ी। सरकारी राशि को बड़े पैमाने पर भ्रष्ट अधिकारी और ठेकेदार डकार गए। तीन पूर्व चेयरमैन के खिलाफ संगीन आरोप लगे। ये मामले आज भी चल रहे हैं, लेकिन किसी मुकाम तक नहीं पहुंचे। औनेपौने दाम पर उपकरणों की खरीद हुई। कई अधिकारियों ने खुद की फर्म बनाकर फर्जी आपूर्ति की। भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक वरीय अधिकारी ने इसे रोकने के लिए नियम-कायदे बनाए। उसके साथ भी छेड़छाड़ की कोशिश की गई। कई मामलों की जांच सीबीआइ कर रही है। खुद सरकार ने हाईकोर्ट को दिए गए एक शपथपत्र में कबूला था कि जांच की जद में 177 अधिकारी हैं। आज भी स्थितियां कमोवेश ऐसी ही हैं। भ्रष्टाचार बिजली के क्षेत्र में घुन की तरह मिलकर इसे खोखला कर रहा है। इस मोर्चे पर सरकार को सख्ती से पेश आना होगा। ऐसे अधिकारी चिह्न्ति किए जाएं, जो पूर्व में घपले कर साफ बच निकल गए। इससे भ्रष्ट तरीके अपनाने वालों में दहशत होगी और महकमे को पटरी पर लाना आसान होगा। उन ठेका कंपनियों को भी कार्रवाई के शिकंजे में लाना होगा, जिन्होंने बगैर काम किए सैकड़ों करोड़ डकार लिए। 1बिजली क्षेत्र में सुधारात्मक उपाय अपनाने की दिशा में भी राज्य फिसड्डी है। झारखंड विखंडन की प्रक्रिया को अपनाने वाला देश का सबसे अंतिम राज्य है। यह प्रक्रिया आज भी आधी-अधूरी है। विद्युत बोर्ड का विखंडन कर एक होल्डिंग कंपनी समेत चार नई कंपनियां बनाई गई। तमाम प्रमुख पदों पर अधिकारी-इंजीनियर तैनात कर दिए गए, लेकिन क्या सिर्फ दस्तावेजों में बिजली की स्थिति सुधरेगी। इसके लिए जर्जर वितरण व्यवस्था में बदलाव लाना होगा। सालों साल बिजली के तार नहीं बदले जाते। विकसित राज्य अब अत्याधुनिक ट्रांसफार्मरों का उपयोग कर रहे हैं और झारखंड पुराने र्ढे पर चल रहा है। उपकरणों की खरीद तक ब्लैक लिस्टेड कंपनियों से होती है। जाहिर है ब्लैक लिस्टेड कंपनियों से खरीदी गई सामग्री निम्न स्तर की होगी। पावर ट्रांसफार्मर लगातार जवाब दे रहे हैं। ग्रामीण विद्युतीकरण का भी यही हाल है। गांवों में काफी कम क्षमता के ट्रांसफार्मर लगाए गए। उनकी गुणवत्ता भी संदिग्ध है। सैकड़ों गांव आज भी रोशनी से वंचित हैं। ऐसी स्थिति में फौरी तौर पर सुधार की गुंजाइश तो नहीं दिखती, लेकिन लगातार प्रयास से इस स्थिति में बदलाव अवश्य होगा। इसके लिए प्रयास बड़े पैमाने पर होना चाहिए। राज्य सरकार कई कंपनियों के साथ एमओयू कर रही है। निवेशकों को आमंत्रित किया जा रहा है। ऐसे में यह सोचना होगा कि हम उन्हें बिजली कहां से मुहैया कराएंगे। बगैर बिजली के उद्योग-धंधे पनपने से रहे। विकास की आवश्यक शर्तो में बिजली है। झारखंड के कोयले से देश के अन्य प्रांत जगमगाते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से झारखंड अंधेरे में रहने को विवश है। समय की मांग है कि ताप विद्युत संयंत्रों के साथ-साथ गैर परंपरागत ऊर्जा स्रोत स्थापित करने पर भी ध्यान देना होगा। राज्य में पनबिजली की संभावनाएं हैं, लेकिन इसपर सिर्फ कागजों में ही बात बढ़ती है। एक पनबिजली परियोजना सिकिदरी में है, लेकिन उससे पर्याप्त उत्पादन नहीं मिल पाता। सौर ऊर्जा के क्षेत्र में प्रयास किया जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक संसाधन राज्य सरकार को मुहैया कराना होगा। 14 साल में प्रदेश की आबादी लगभग एक करोड़ बढ़ गई, लेकिन बिजली के संसाधन पहले जैसे ही हैं। इस स्थिति से राज्य को उबारना पड़ेगा। अगर इच्छाशक्ति हो तो इस दिशा में काम किया जा सकता है। वैसे कई प्रदेशों का उदाहरण सामने है, जहां प्राकृतिक संसाधन नहीं रहने के बावजूद वे इतने सक्षम हैं कि बिजली की किल्लत नहीं होती। उत्तर-पूर्व के राज्यों ने पनबिजली के क्षेत्र में बेहतर काम किया है। झारखंड की भौगोलिक परिस्थितियां विषम है। इस परिस्थिति को अवसर के रूप में लेना होगा। ताप विद्युत इकाइयां वैसे स्थानों पर बनें, जहां कोल ब्लॉक और पानी की उपलब्धता हो। इससे उत्पादन की लागत कम होगी। जलाशयों का इस्तेमाल पनबिजली योजनाओं के लिए किया जाए। बंजर और ऊसर भूमि का उपयोग सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने में किया जा सकता है। समेकित प्रयास से कुछ साल में झारखंड बिजली के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो सकता है। 

Saturday, July 13, 2013

इतिहास खुद को दोहरा रहा है

झारखंड में एक बार फिर गठबंधन सरकार बनने जा रही है। शिबू सोरेन के राजनीतिक उत्तराधिकारी हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने जा रहे हैं। राष्टï्रपति शासनों की अवधि छोड़ भी दें तो तेरह वर्षों में यह नौवीं सरकार होगी और हेमंत पांचवें मुख्यमंत्री। इससे पहले बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, मधु कोड़ा, शिबू सोरेन मुख्यमंत्री पद की शोभा बढ़ा चुके हैं। अर्जुन मुंडा और शिबू सोरेन को तो तीन बार मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला। यह अलग बात है कि इनमें से कोई भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया। कहते हैं इतिहास कभी कभार अपने को दोहराता है, लेकिन झारखंड के संदर्भ में यह कहावत फिट नहीं बैठती। झारखंड की राजनीति में एक दशक से जो कुछ घटित हो रहा है, उसको देख कर तो यही लगता है कि  इतिहास अपने को हमेशा दोहराता रहता है। शायद इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि हम इतिहास से कोई सबक नहीं लेते। इसीलिये उसे बार-बार दस्तक देनी पड़ रही है।
 हेमंत भले ही नए मुख्यमंत्री बन रहे हों, लेकिन इसमें कुछ भी नया नहीं है। यह पुरानी फिल्मों की रिमेक की तरह है जिसकी कहानी पुरानी ही है। बस निर्देशक और पात्रों के किरदार बदल गये हैं। जोड़-तोड़ कर सरकार बनाने के लिये जो गठबंधन बना है उसमें हेमंत सोरेन को ट्रेजडी, ड्रामा और एक्शन वैसा ही देखने को मिलेगा, जैसा उनके पूर्ववर्ती समकक्षों के समय गाहे-बगाहे दिखाई देता था। देखा जाये तो गठबंधन में शामिल दलों और निर्दलीयों को साधना आसान काम नहीं है। यहां के राजनीतिक दलों व नेताओं के पास कोई स्पष्टï एजेंडा नहीं है। सत्ता के लिये वक्त और मौके की नजाकत के हिसाब से उनका स्टैंड और एजेंडा बदलता रहता है और यही सबसे बड़ी समस्या है। राज्य के लोगों की नजर इस पर टिकी रहेगी कि वह बतौर मुख्यमंत्री इससे कैसे निपटेंगे। उनके लिये यह आसान भी नहीं है। उन्हें यह ध्यान में रखना होगा कि उनके पूर्व जो लोग बेमेल का गठबंधन कर मुख्यमंत्री बने, उन्हें किस तरह कुर्सी बचाने के लिये नेताओं और राजनीतिक दलों को खुश करना पड़ा और उससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला। इससे पूरे देश में राज्य की इतनी बदनामी हुई कि झारखंड एक तरह से भ्रष्टïाचार का पर्याय बन गया।

 यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि झारखंड जैसी राजनीतिक अस्थिरता देश के किसी राज्य में देखने को नहीं मिलती। जाहिर है, जब किसी मुख्यमंत्री को ज्यादातर समय अपनी कुर्सी बचाने और गठबंधन के नेताओं के हित साधने में ही लग जायेंगे तो वह भला राज्य के लिये क्या कर सकता है।
झारखंड के फिसड्डी होने के पीछे सबसे बड़ी वजह राजनीतिक अस्थिरता ही रही है। बड़ा सवाल यह है कि 2003 में बाबूलाल मरांडी को हटा कर अर्जुन मुंडा को भाजपा द्वारा मुख्यमंत्री बनाने के बाद से राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का जो दौर शुरू हुआ है, वह हेमंत सोरेन द्वारा अर्जुन मुंडा को कुर्सी से हटाने और उनके मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने से क्या खत्म हो जायेगा? यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है, जिसका जवाब फिलहाल किसी राजनीतिक दल के पास नहीं है और न ही वह देना चाहता है। 
यह सही है कि लोकतंत्र में राष्ट्रपति शासन लोकप्रिय सरकार का विकल्प नहीं हो सकता। राजनीतिक दलों की यह जिम्मेदारी भी बनती है कि वे जनता को उनके चुने हुए प्रतिनिधियों की सरकार दे, लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि गठबंधन सरकार का नेतृत्व करना तनी हुई रस्सी पर चलने के समान है। संतुलन बिगड़ा नहीं कि जमीन पर गिरे। खतरा तब और बढ़ जाता है, जब रस्सी ऐसे लोगों के हाथ में हो, जो जब चाहे खींच दें। साझे दलों में अंतद्र्वंद्व की वजह से सरकार बहुत सेहतमंद नहीं कही जा सकती है। इसमे कोई दो राय नहीं कि हेमंत के मुख्यमंत्री बनने से झारखंड की राजनीति नया मोड़ ले रही है। झामुमो और उसके नेता शिबू सोरेन का नाम भले ही अलग राज्य की लड़ाई में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जायेगा, लेकिन सत्ता की चाबी बार-बार हाथ से फिसलने की वजह से झारखंड के नवनिर्माण में वह और उनका दल चाह कर भी हासिये पर ही रहा। आदिवासियों के विकास की उनकी सोच अब भी धरातल पर नहीं उतर पाई। यही वजह है कि शिबू सोरेन और उनका दल हेमंत सोरेन में अपना भविष्य देख रहा है। सरकार में शीर्ष पद पर पहुंचने से वह झामुमो का नया चेहरा बन कर उभर रहे हैं। हालांकि बदलाव की इस प्रक्रिया में पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी के नेतृत्व को स्वीकार करने में खुद को असहज महसूस कर रही है, यह स्वाभाविक भी है। यदि गठबंधन की मजबूरियों व चुनौतियों से हेमंत पार पा लेते हैं तो उनकी राह आसान हो सकती है, क्योंकि झारखंड में नेतृत्व का संकट उतना नहीं जितना कुशल नेतृत्व और गवर्नेंस की जरूरत है। वह एक नया इतिहास बना सकते हैं, तब शायद इतिहास अपने को फिर नहीं दोहराएगा। 

Wednesday, January 30, 2013

बदलना होगा समाज को

 दिल्ली में सामूहिक दुष्कर्म की शिकार युवती की सिंगापुर के अस्पताल में मौत की घटना ने देश को हिला कर रख दिया है। जिस लड़की की मौत हुई है भले ही किसी ने उसका चेहरा न देखा हो और नाम भी नहीं जानते हैं लेकिन पूरे देश में शोक की लहर है। सबका मन व्यथित है। ऐसा लगता है मानों अपनी ही कोई बहन बेटी थी जो जिंदगी की जंग हार गई। इस घटना ने हमारी अंतरआत्मा के साथ ही समूचे देश की सामूहिक चेतना को भी झकझोर कर रख दिया है। पहले कभी ऐसा देखने में नहीं आया। जिस तरह से पूरा देश श्रद्धांजलि दे रहा है लगता है कि उसकी मौत महिलाओं के आपराधिक कृत्यों को अंजाम देने वालों के खिलाफ एक युद्धघोष है। एक शहादत है जो इस बात के लिये प्रेरित कर रही है कि हमें इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिये एकजुट होकर लडऩा ही होगा नहीं तो आज जो कुछ हुआ है कल वह हमारी बहनों और बेटियों के साथ भी हो सकता है।   महिलाओं की सुरक्षा व सम्मान के लिये जो मशाल जली है बुझनी नही चाहिये। वक्त आ गया है कि महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा की इस लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया जाये। हमें बदलना ही होगा। समाज को महिलाओं का सम्मान करना सीखना ही होगा नहीं तो इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति होती रहेगी और हम लकीर पीटने के अलाव कुछ नहीं कर पायेंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं के प्रति लोगों का नजरिया दोयम दर्जे का है। हम महिलाओं को बराबरी का सम्मान देने की बात तो करते हैं लेकिन उस पर अमल नहीं करते। प्राचीन काल से लेकर आज तक हमारे देश की इस आधी आबादी ने कई बदलावों का सामना किया है। बहुत कुछ बदला भी है। आज महिलायें हर क्षेत्र में पुरुषों की बराबरी कर रही हैं। कई राज्यों की मुख्यमंत्री आदि जैसे शीर्ष पदों पर भी आसीन हुई हैं। आज ऐसी तमाम बेटियां हैं जो अलग-अलग क्षेत्रों में देश का नाम रोशन कर रही हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस सब के बावजूद उनके प्रति पुरुषों का दोयम नजरिया नहीं बदला है। यही वजह है कि वे घर और बाहर कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। यह विचारणीय प्रश्न है कि ऐसा क्यों है। हम अपने बच्चों को दूसरे के घर की महिलाओं का सम्मान करना क्यों नहीं सिखा पाते। बच्चों को संस्कार या तो प्राथमिक शिक्षा के दौरान मिलती है या उसके माता-पिता से। बड़े होने पर संस्कार नहीं सिखाया जा सकता। जाहिर है एक शिक्षक और अभिभावक के रुप में हम पूरी तरह असफल हैं। हम अपने
लड़कों के पालन-पोषण के समय उसको यह एहसास दिलाते हैं कि वह लड़कियों से श्रेष्ठ हैं। अनजाने में ही सही लेकिन हम उनमें लिंग-भेद व्याप्त कर देते हैं। हमें यह समझना चाहिये कि जब लड़के बड़े होते हैं तो इसी मानसिकता के आधार पर उनके व्यक्तित्व का भी निर्माण होता है। समाज विज्ञानियों का भी मानना है कि महिलाओं के साथ छेड़छाड़ का स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक आकर्षण या यौन-सम्बन्धों से कोई सम्बन्ध नहीं है। छेड़छाड़ के द्वारा पुरुष अपनी श्रेष्ठता को स्त्रियों पर स्थापित करना चाहता है और उसकी ऐसी ही कोशिशों का अंजाम इस तरह की घटनाओं के रुप में सामने आती हैं। लड़कों का लालन पालन यदि इसी  श्रेष्ठता बोध के साथ होता रहेगा तो कैसे जीयेंगी लड़कियां। जब तक हमारी सोच नहीं बदलती बेटा और बेटी एक समान केवल नारे तक ही सीमित रहेगा। जिनकी केवल बेटियां ही होगी वह दहशत में ही जीने को मजबूर होंगे।
इस बर्बर घटना के बाद दुष्कर्म जैसे अपराधों के मुकदमें को तेजी से निपटाने,अपराधियों को सख्त सजा देने और महिलाओं की समानता,सुरक्षा व सम्मान के लिये सरकार के स्तर पर तत्काल कदम उठाने की बात हो रही है। सरकार ने इसके लिये पहल भी शुरु कर दी है लेकिन क्या केवल कानून भर बना देन से महिलाओं के प्रति समाज का जो नजरिया है बदल जायेगा।
महिलाओं के खिलाफ आपराधिक घटनाओं को अंजाम देने वाले तमाम लोग सबसे ज्यादा समाज की उदासीनता का ही बेजा फायदा उठाते हैं। यौन उत्पीडऩ या छेड़छाड़ की घटनाओं को लेकर सामाजिक संवेदनहीनता जगजाहिर है। यौन अपराधों के दोषियों के प्रति नरम रुख अपनाना न केवल अवांछनीय है बल्कि यह किसी भी समाज के लिये भी अत्यंत खतरनाक है। जब देश के राष्ट्रपति का बेटा और जनप्रतिनिधि तक महिलाओं के बारे में संकीर्ण विचार रखते हों तो और बेहूदी दलीलें देते हों तो आम आदमी की मानसिकता का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। यह सही है कि देश में महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े कानून पूरी तरह अप्रभावी हैं लेकिन यह भी सच है कि अपराधियों के हौसले इसलिये भी बुलंद हैं कि कानून के साथ उन्हें समाज का भी डर नहीं है। समाज दुराचारियों को संरक्षण देने का काम करेगा तो ऐसा समाज किस काम का है। यदि कानून व्यवस्था दुरुस्त भी रहे तो इतने भर से सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में कमी नहीं आ जाएगी। जब तक समाज अपने स्तर पर महिलाओं के प्रति जरूरी संवेदनशीलता नहीं दिखायेगा सरकारें और पुलिस कड़े कानूनों के प्रावधानों के बावजूद अपनी जिम्मेदारियों को लेकर कभी भी गंभीर नहीं होगी  महिलाओं को बार बार इस तरह की घटनाओं का सामना करना पड़ेगा ही।
यदि हम चाहते कि हमारी बेटियां निर्भीक होकर घरों से बाहर निकलें और सुरक्षित घर लौटें तो हमें उनके लिये बेहतर माहौल भी उपलब्ध करना ही  होगा और इसकी शुरुआत हमें अपने आस पड़ोस से शुरु कर देनी चाहिये।  धीरे-धीरे लोग आते जायेेंगे और कारवां बनता जायेगा। सामूहिक दुराचार की बर्बरता की शिकार युवती को समाज की यही सही सच्ची श्रद्धांजलि होगी। यदि हम अब भी नींद से नहीं जागे तो आने वाली पीढिय़ां हमें कभी माफ नहीं करेंगी और देश की इस बेटी का बलिदान भी व्यर्थ जायेगा।