Wednesday, July 7, 2010

भूतवा खुले के चाही-2


गांव के बडे बुर्जुगों की सलाह पर जो दिन निश्चित किया गया उस दिन बम्बईया पंडित जी पूरे परिवार के साथ बरमबाबा के मंदिर में कसम खाने के लिए पहुंच ही गए। बरम बाबा का मंदिर पंडितों के गांव के बाहर एक खुले मैदान में बना हुआ है। मैदान के बायीं ओर यादव रहते हैं और उसी से सटी दलितों की बस्ती है जो रेलवे लाईन के किनारे तक फैली हुई है। कसम खाने वाले दिन पूरा मैदान ठसाठस भरा हुआ था। सभी के मन में उत्सुकता थी कि होगा क्या ? उधर बिहारी जब घर से चले तो उन्हें पूरा विश्‍वास था कि आज उनका पैसा उन्हें मिल जाएगा क्योकि कोई बरम बाबा की झूठी कसम थोडे ही खाएगा। मंदिर के पास पहुंच कर वे अपने बिरादरी के लोगों के साथ जमीन पर बैठ गए।बिहारी के पहुंचने के साथ ही वहां मौजूद लोगों में खुसरफुसुर होने लगी। दलित बिरादरी के ज्यादा लोगों का मानना था कि पंडित ने अवश्य बिहारी के पैसे हडपे होंगे जबकि पिछडे और सवर्णों की मान्यता यह थी कि धरम करम में यकीन रखने वाले पंडित जी ऐसा नहीं कर सकते ‍उनके उपर मिथ्या दोषारोपण किया जा रहा है। जितने मुहं उतनी बातें। आखिर जब पंडित जी ने हाथ में गंगा जल लिया और सबके सामने यह कसम खाई कि बिहारी ने कभी भी कोई पैसा उन्हें रखने के लिये नहीं दिया था, यदि उनकी बात झूठी हो तो बरम बाबा उन्हें दंड दें। बरम बाबा के प्रति जनआस्था और पंडित जी के कसम खाने के बाद गांव समाज के लिए यह मामला खत्म हो गया। सबको यकीन हो गया कि बिहारी ने दोषारोपण किसी के बहकावे में आकर लगाया होगा। महज कसम खाने भर से पंडित जी लोगों की नजर में सच्चे और बिहारी झूठे साबित हो गए। ग्रामीण समाज की यह विडम्बना है कि बिना सच जाने लोग लोक आस्था के आगे सिर नवाते है और उनकी इसी प्रवृत्ति के कारण अक्सर सच हार जाता है। आज भी ग्रामीण इलाकों में इस तरह के नजारे देखने को मिल जाएंगे। रही बात बिहारी व पंडित जी की तो वे अपना-अपना सच जानते थे। पंडित जी धरम करम को मानने वाले थे उन्होंने पाप व पूण्य का हिसाब लगाकर कसम खाई थी। पता नहीं उन्हें बरम बाबा के प्रकोप का डर था कि नहीं लेकिन बिहारी को पक्का यकीन था कि आज नहीं तो कल बरम बाबा पंडित जी पर भूत छोडेंगे क्योंकि उन्होंने उनकी झूठी कसम खाई थी।


समय बीतने के साथ गांव वालों के साथ पंडित जी भी इस वाकये को भूलने लगे लेकिन बिहारी जब भी बरम बाबा के मंदिर के आसपास से गुजरते उनकी नजरें मंदिर की ओर उठ जातीं, मानों गजारिश कर रही हों कि काफी समय बीत गया आखिर पंडित जी को झूठी कसम खाने का दंड कब देंगे। धीरे-धीरे जब कई साल बीत गए तो बिहारी के सब्र का पैमाना छलकने लगा और यह सोच कर परेशान रहने लगे कि आखिर बरम बाबा भूत छोडने में इतनी देर क्यों कर रहे हैं जबकि उनकी दलित बस्तील के एक व्यक्ति ने जब झूठी कसम खाई थी तो एक माह में ही उन्होंने उसकी बकरी पर भूत छोड दिया था जिससे उसकी मौत हो गई थी।

Monday, May 17, 2010

मूलभूत इकाई परिवार

भारतीय समाज की मूलभूत इकाई परिवार है। बदलते समय में एकल परिवारों के चलन के साथ जीवन में रिश्तेदारों और सगे-संबंधियों की महत्ता उपरी तौर पर भले ही कम हुई हो, लेकिन प्रायोगिक तौर पर अगर देखें तो युवा पीढ़ी की कई परेशानियों का हल रिश्तेदारों के माध्यम से आसानी से मिल सकता है। रिश्तेदार जीवन का ऐसा अंग हैं, जिनके लिए व्यस्तता के बीच भी समय निकालना सामाजिक जीवन के लिए बहुत जरूरी है। आज के समय में हर कोई अपने जीवन में व्यस्त है, लेकिन हमारे समाज की इकाई परिवार है और इसीलिए सामाजिक ताने-बाने को बनाए रखने के लिए अपने सगे-संबंधियों के संपर्क में रहना जरूरी है। समाज के ढ़ांचे को बनाए रखने के लिए साल के कम से कम एक दिन तो अपने अपनों के नाम रखना चाहिए।
भारतीय समाज में माता-पिता, पड़ोसियों और सगे-संबंधियों की अपनी भूमिका है, जिसे बेहद व्यस्त रहने वाली आधुनिक युवा पीढ़ी को भी स्वीकार करनी चाहिए। भागते-दौड़ते जीवन की कई परेशानियां रिश्तेदारों और सगे-संबंधियों के बीच विमर्श से ही सुलझ जाती हैं। महानगरों में कामकाजी लोगों को भले ही अपने सगे-संबंधियों या रिश्तेदारों से मिलने का समय न मिले, लेकिन कई परिस्थितियों में रिश्तेदारों के बीच बैठने से समस्याओं का चुटकियों में समाधान निकल जाता है। जिंदगी में दोस्तों और रिश्तेदारों की अलग-अलग अहमियत है।

Friday, May 14, 2010

छोटी-सी चींटी

एक छोटी-सी चींटी हर दिन दफ्तर में समय से पहले पहुंच जाती थी और तुरंत काम शुरू कर देती थी। अपने काम से वह खुद काफी खुश थी। उसका आउटपुट काफी था। उसका सर्वोच्च बॉस, जो एक शेर था, इस बात से चकित था कि चींटी बिना किसी पर्यवेक्षक के इतना काम कैसे करती है। उसने सोचा कि चींटी अगर बगैर किसी पर्यवेक्षक के इतना काम कर रही है तो उसके ऊपर एक सुपरवाइजर रख दिया जाए तो वह और ज्यादा काम करेगी। इसलिए शेर ने एक तिलचट्टे को सुपरवाइजर बना दिया।
तिलचट्टे को काम का काफी अनुभव था। वह अच्छी रिपोर्ट लिखने के लिए मशहूर था। तिलचट्टे ने जो पहला निर्णय लिया वह यह कि दफ्तर में घड़ी लगाई जाए और उपस्थिति लगाने की व्यवस्था दुरुस्त की जाए।
यह सब करने और रिपोर्ट तैयार करने के लिए उसे एक सेक्रेट्री की जरूरत महसूस हुई। उसने एक मकड़े को नियुक्त कर लिया। वह उसकी क्लिपिंग और पुरानी फाइलों आदि का हिसाब रखता था और फोन कॉल (उस समय मोबाइल नहीं थे) आदि देखता था।
तिलचट्टे की रिपोर्ट से शेर बहुत खुश हुआ और उत्पादन दर बताने के लिए ग्राफ बनाने और विकास की प्रवृत्तियों के झुकावों आदि का विश्लेषण करने के लिए शेर ने तिलचट्टे को कहा ताकि वह बोर्ड मीटिंग में इसका उपयोग कर सके। इसके लिए तिलचट्टे को कंप्यूटर और प्रिंटर की जरूरत हुई। इन सब की देखभाल करने के लिए उसने एक मक्खी की नियुक्ति कर ली।
सारे मामले की तह में जाने और समाधान सुझाने के लिए शेर ने एक प्रतिष्ठित और जाने-माने सलाहकार उल्लू को नियुक्त किया।
उल्लू ने इसमें तीन महीने लगाए और एक भारी भरकम रिपोर्ट तैयार करके दी। यह कई खंडों में थी। इसका निष्कर्ष था, विभाग में कर्मचारियों की संख्या बहुत ज्यादा है।
अनुमान लगाइए शेर सबसे पहले किसे हड़काएगा? बेशक चींटी को क्योंकि उसमें काम के प्रति लगन के भाव का अभाव दिख रहा था और उसकी सोच भी नकारात्मक हो गई थी।
संदेश------
चींटी मत बनिए।

Tuesday, May 11, 2010

मदर्स डे पर

मैं आज जो कुछ भी हूं वह अपनी मां की बदौलत हूं। मां के बगैर इस उंचाई की कल्पना भी नहीं कर सकता। मां ने समझाया जो भी पढ़ो उसकी तह तक जाओ। मैं तो उन सौभाग्यशाली व्यक्तियों में हूं जिसकी मां आज भी जीवित है। कम पढ़ी लिखी होने के बावजूद तरक्की की हर डगर में उन्होंने मेरा साथ दिया। सूर्य की भांति उन्होंने कदम कदम पर प्रकाश दिखाया। सांसारिक शिक्षा तो मुझे विद्यालय से मिली परन्तु मां की गोद से मुझे जिन मानवीय पहलुओं को समझने और उसे आत्मसात करने का जो इल्म हासिल हुआ उसी के चलते यहां तक पहुंच सका। सच मानिए मां सारी इंसानियत के लिए कुदरत का बेहतरीन तोहफा है। शेक्सपीयर ने भी मां को नर्म आगोश कहा है। नेपोलियन की जुबान में- तुम मुझे अच्छी मां दोगे तो मैं उसे बेहतरीन कौम दूंगा। मां की बाबत शायर ताहिर फराज के अल्फाज में कहना यहां प्रसांगिक होगा।
तेरा मन अमृत का प्याला, यही काबा यही शिवाला, तेरी ममता जीवनदायी, माई ओ माई।
बचपन की प्यास बुझा दे अपने हाथों से खिला दे, पल्लू से बंधी मिठाई, माई-ओ-माई।

इंसान की कल्पनाओं को उड़ान देती पतंग

उड़ने की हसरत लिए इंसान में अपनी परवाज से विश्वास पैदा करने वाली पतंग अपने दो हजार आठ सौ वर्षों के इतिहास में विभिन्न प्रयोगों, स्वरूपों और निहित मान्यताओं की वजह से मानव के लिए हमेशा महत्वपूर्ण रही है। डोर थामने वाले की उमंगों को उड़ान देने वाली पतंग दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अलग अलग मान्यताओं, परम्पराओं तथा अंधविश्वास की भी वाहक रही है। माना जाता है कि पांचवीं सदी ईसा पूर्व से चीन की जमीन से उड़ान भरकर धीरे-धीरे पूरी दुनिया पर छा जाने वाली पतंग का आविष्कार पांचवी सदी ईसा पूर्व चीन के दार्शनिकों मोजी और लू बान ने किया था। हालांकि यूरोप अगली कई शताब्दियों तक पतंग से अनजान रहा।
दुनिया के कई हिस्सों का सफर तय करने वाले मार्को पोलो के यूरोप आने पर पतंग का रिवाज भी इस महाद्वीप में पहुंचा। चीनी दस्तावेजों के मुताबिक पतंग का इस्तेमाल दूरियां नापने, हवा के रुख का पता लगाने, संकेत देने और सेना के लिए संचार उपकरण के रूप में भी किया जाता था। इंसान की महत्वाकांक्षा को आसमान बख्शने वाली पतंग कहीं शगुन और अपशकुन से जुड़ी है तो कहीं ईश्वर तक अपना संदेश पहुंचाने के जरिए के रूप में प्रतिष्ठित है। प्राचीन दंतकथाओं पर विश्वास करें तो चीन और जापान में पतंगों का इस्तेमाल सैन्य उद्देश्यों के लिए भी किया जाता था। चीन में किंग राजवंश के शासन के दौरान उड़ती पतंग को यूं ही छोड़ देना दुर्भाग्य और बीमारी को न्यौता देने के समान माना जाता था। कोरिया में पतंग पर बच्चे का नाम और उसके जन्म की तारीख लिखकर उड़ाया जाता था ताकि उस साल उस बच्चे से जुड़ा दुर्भाग्य पतंग के साथ ही उड़ जाए।
मान्यताओं के मुताबिक थाईलैंड में बारिश के मौसम में लोग भगवान तक अपनी प्रार्थना पहुंचाने के लिए पतंग उड़ाते थे जबकि कटी पतंग को उठाना अपशकुन माना जाता था। दुनिया के विभिन्न हिस्सों के आसमान में लहराती पतंग का रिवाज आगे बढ़ते बढ़ते भारत पहुंचा और वह यहां की गंगा जमुनी संस्कृति में शामिल हो गया। भारत में पतंग उड़ाने का शौक दीवानगी बनकर उभरा और बच्चों से लेकर बूढ़ों तक में इसके प्रति मोह पैदा हुआ। खालिद हुसैनी की चर्चित किताब 'काइट रनर' में भारत में पतंगबाजी तथा इसके शगल से जुड़ी रवायतों और उसूलों का बड़ी खूबसूरती से जिक्र किया गया है। भारत में मकर संक्रांति बसंत पंचमी और स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लोगों की पतंगबाजी के शौक और इससे जुड़े उल्लास के दीदार अब भी किए जा सकते हैं। दुनिया के कई हिस्सों में 12 मई को 'काइट डे' मनाया जाता है हालांकि इसके कारण का कहीं आधिकारिक जिक्र नहीं मिलता है।
आज की भागमभाग भरी जिंदगी में हमारे हाथों से पतंग की डोर भले ही छूट गई हो लेकिन नीले आकाश में रंगबिरंगी पतंगों की परवाज आज भी सुकून देती है।

Saturday, April 10, 2010

भूतवा खुले के चाही-2

जब से कसम खाने की बात चली बिहारी आश्‍वस्‍त हो गए कि पंडित जी झूठी कसम नही खाएंगे और उसका पैसा लौटा देंगे। आखिर वो दिन आ ही गया जब बिहारी की मन मांगी मुराद पूरी होने वाली थी। सुबह से से ही गांव में यह खबर जंगल में आग की तरह फैल गई कि पंडित जी आज बरम बाबा के मंदिर में हलफ उठाने वाले हैं। दोपहर होते-होते आसपास के गांव के लोगों का हुजूम भी वहां तमाशा देखने उमड पडा।

Tuesday, March 16, 2010

भुतवा खुले के चाही

रात को 12 बजे के बाद जैसे ही हरसू बरम बाबा हो भुतवा खुले के चाही आवाज कानों में टकराती, हम लोग बचपन में डर जाते थे। गांव में जब देर रात तक कोई बच्चा नहीं सोता था तो बडे बूढे यह कह कर डराते थे कि सो जाओ नहीं तो बिहारी भूत खोलेंगे । ऐसा नही है कि केवल बच्चे ही रात में इस वाकये से डरते थे,बडों की भी मजाल नहीं थी कि रात में उस ओर देखने का साहस कर सकें जहां से बिहारी के चिल्‍लाने की आवाज आती थी। जब तक बिहारी जिंदा रहे हमारे गांव में पीढी दर पीढी बच्‍चों को रात में उनसे डरना सिखाया गया। वही बिहारी जब दिन में इमली के पेड के नीचे या रेलवे लाइन के पास किसी की चप्‍पल सीते या जूतों में कीलें ठोकते नजर आते तो उनसे कोई डर नहीं लगता था। शायद इसकी वजह यह थी कि हमें उनसे दिन में डरना नहीं सिखाया गया था। दिन में बच्‍चों के लिए बिहारी एक आम मोची से ज्यादा कुछ नहीं थे। नाटा कद ,काले कलूटे चेहरे,गंजे हो चुके सिर और मैले कपडों के वावजूद दिन में हमारे पास बिहारी से डरने की कोई वजह नहीं थी। बालपन भी अजीब होता है जो बात मन बैठा दी जाती है उसे दिमाग स्‍वीकार कर लेता है और उसके इतर कुछ नही सोचता। दिन में उनके कामकाज व व्‍यवहार को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वे वही है जिनका प्रलाप सुनकर लोग रात में भयभीत हो जाते थे। कोई कुछ भी कहे सिर झुकाए सुन लेते थे। उनका अंदाज निराला था कितनी बार पडोस के गांव के पंडितो ने उनको पीटा लेकिन वे मरते दम तक रात में अपनी भूत खोलने की आदत से बाज नहीं आए।
बिहारी हमारे गांव के बाहर बसी दलित बस्ती में रहते थे। इस बस्ती में और भी दलित परिवार थे लेकिन बिहारी में एक खास बात थी जो उन्‍हें उस बस्‍ती के बाकी लोगों से अलग बनाती थी। उनकी बस्‍ती के सभी दलित परिवार जहां जमीदारों व किसानों पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर थे वहीं बिहारी को मैने कभी भी किसी से कुछ मांगते हुए नहीं देखा। सुबह होते ही वह अपना थैला उठाए चौबेपुर बाजार की और चल देते थे और देर शाम ढलते वापस लौटते। आधी रात होते ही हरसू बरम बाबा के पास भुतवा खुलवाने के लिए बांग देने चल पडते थे। जाडे की कंपकपां देने वाले सर्दी और घनघोर बारिश में भी उन्‍होने कभी रात में बरम बाबा के पास जाने में कोताही नहीं बरती । बचपन में यह बात समझ में नहीं आती थी कि आखिर वह भूत खोलना क्‍यों चाहते थे। कभी यह जानने की काशिश भी नहीं की। उस समय तो बस इतना पता था कि जब बिहारी रात में भूत खोलने के लिए चिल्‍लाएं तो डर जाना है। बडा होने पर शहर में ज्‍यादा रहना हुआ। गांव कभी कभार जाना हो पाता था। धीरे- धीरे मानस पटल से बिहारी की याद भी मिटती चली गई।
बोर्ड की परीक्षा देने के बाद गर्मियों में जब गांव जाना हुआ तो रात में साते समय बिहारी की चर्चा छिड गई, उसी दौरान पता चला की दो माह पहले उनकी मौत हो गई। उस रात पहली बार बिहारी के बारे में देर रात तक सोचता रहा कि वह रात में क्‍यों भूत खोलने के लिए चिल्‍लाते थे। क्‍या बरम बाबा ने उनकी गुहार पर कोई भूत छोडा। यदि भूत छोडा तो वह कहां होगा। क्‍या वह बिकापुर के बरम बाबा के मंदिर के पास वाले मैदान से लेकर रेलवे लाईन तक रात में बिहारी की तरह ही छलांगे मार कर घुमता होगा। यदि ऐसा नहीं है तो आखिर क्‍यों बिहारी ने अपने इतने साल इस काम में जाया किया। मेरे मन में विचारों का ऐसा सिलसिला उठा कि रूकने का नाम ही नहीं ले रहा था। विचारों के झंझावात के बीच कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। सुबह देर से उठा लेकिन बिहारी की मौत की खबर और उससे जुडे सवाल जो रात मे मेरे मन उठे थे जेहन में ताजा थे।
बकौल मेरी दादी, बिहारी कभी मुम्‍बई में काम करते थे। उन दिनों मेरे और आसपास के गांवों के लोग जो ज्‍यादा पढ नहीं पाए पैसा कमाने के लिए मुम्‍बई ही उनको मुफीद जगह नजर आती थी। गांव के हर वर्ग और हर जाति के लोग महनगरी ट्रेन के जनरल डब्‍बे में बोरी की तरह लद कर मुम्‍बई जाते और आते रहते थे। जब कोई वहां से गांव आ रहा होता था तो लोग एक दूसरे के माध्‍यम से अपने परिजनो को रूपये और कपडे लत्‍ते भेजते रहते थे। हमारे गांव के लोग वैसे तो छूआ- छूत, छोटी जाति व बडी जाति में पूरा यकीन रखते थे लेकिन मुम्‍बई जाते ही वहां पर सभी लोगों के बीच ऐसी सामाजिक समरसता कायम हो जाती थी कि यह पता लगाना मुश्किल हो जाता था कि किसकी क्‍या जाति है। मानों मुम्‍बई में यह बात मायने ही नहीं रखती थी कि कौन किस जाति का है। चाहे नाई हो,धोबी हो,लुहार हो या दलित सबकी पहचान यही होती थी कि वे कहां के रहने वाले हैं और कहां क्‍या काम करते हैं। शायद ऐसा इस वजह से भी था कि परदेश में जान पहचान का संकट होता है और असुरक्षा की भावना लोगों को संगठित कर देती है। गांव के बडे बुजुर्गों को हमेशा यही डर सताता रहता कि कहीं उनके बच्‍चे अपना धर्म न भ्रष्‍ट कर लें। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। मुम्‍बई से गांव लौटते ही लोग अपनी- अपनी जातियों के टापुओं पर टुकडियों में बंटे हुए दिखाई देते।
यह तो हुई गांव की बात। हम बिहारी की ओर लौटते हैं।मुम्‍बई में ही बिहारी के गांव के एक पंडित जी भी काम करते थे जब वह गाव जाने लगे तो बिहारी ने उनके हाथ अपने परिजनों को देने के लिए कुछ रूपये और सामान दिया जो उसने बडी मेहनत करने के बाद कमाएं थे। पंडित जी गांव लौटे तो अपने घर परिवार और खेत खलिहान में व्‍यस्‍त हो गए। उन्‍हें याद भी नहीं रहर कि बिहारी ने जो थाती सौंपी थी उसे उसके परिजनो को लौटाना भी है। धीरे-धीरे उनकी मुम्‍बई की कमाई भी खर्च हो गई। उन्‍होंने गांव में ही रह कर पंडिताई को अपना पेशा बना लिया जो चल निकली। कई साल बीत गए। उध्‍ार मुम्‍बई में बिहारी बिमारी की वजह से अपना गुजर- बसर मुश्किल से कर पा रहा था,ऐसे में उसने यह सोचकर गांव जाना मुनासिब समझा कि जो रूपये उसने घर भिजवाए थे उसी के सहारे वहां जीवन यापन कर लेगा। जब वह गांव लौटा तो यह जानकर उसके पैरों तले से जमीन निकल गई कि उसने जो रुपये पंडित जी के हाथ घर वालों को भेजा था उन्‍होंने दिए ही नहीं। जब वह इसका तगादा करने पंडित जी के पास गया तो उन्‍होंने रुपये देने से मना कर दिया और कहा कि तुमने दिए ही कब थे। बिहारी भी कहां मानने वाला था उसने आसमान सिर पर उठा लिया और घूम- घूम कर पंडित जी कारनामे से लोगों को अवगत कराने लगा। पंडित जी के पास तो हया और शरम तो थी नहीं लेकिन उनकी जाति के लोगों को यह नागवार गुजरती थी कि कोई दलित जाति का व्‍यक्ति उनकी जाति की बदनामी करे। काफी हीलहुज्‍जत के बाद आखिर यह तय हुआ कि बम्‍बइया पंडित जी बरम बाबा के मंदिर में हलफ उठाएं। हलफ प्रक्रिया के बारे में ऐसी मान्‍यता है कि जो भी झूठी हलफ उठाता है उसे भगवान अवश्‍य दंडित करते हैं।के बारे में ऐसी मान्‍यता है कि जो भी झूठी हलफ उठाता है उसे भगवान अवश्‍य दंडित करते हैं। इस प्रक्रिया के तहत मंदिर में जाकर हाथ में जल लेकर कसम खानी पडती है कि व्‍यक्ति जो कह रहा है सच कह रहा है, यदि वह झूठ बोल रहा हो तो उसके बच्‍चे मर जाएं या उसका सब कुछ नष्‍ट हो जाए। इस आशय का प्रस्‍ताव जब गांव वालों ने बम्‍बइया पंडित जी को दिया तो वह भडक उठे कि किसने देखा था कि मुझे बिहारी ने रूपये दिए थे। झूठ बिहारी बोल रहा है ,मै हलफ क्‍यों उठाऊ। कसम खानी है तो बिहारी खाएं। बिहारी इसके लिए तैयार भी हो गया लेकिन धर्म आडे आ गया। दलित जाति का होने के नाते वह पंडितों के सामने वो भी बरम बाबा के मंदिर में कसम कैसे खा सकता था। उस समय सवर्णो के मंदिर में दलितों का प्रवेश वर्जित था इसलिए बिहारी के मंदिर में प्रवेश करने भर से मंदिर तो अशुद्व होता ही धर्म भी भ्रष्‍ट हो जाता और यह कलंक लेने के लिए कोई तैयार नहीं था। आखिर काफी हीलहुज्‍जत के बाद बम्‍बइया पंडित जी मजबूरी में इसके लिए तैयार तो हो गए लेकिन धर्म व ईश्‍वर में उनकी गहरी आस्‍था थी। उनके लिए मुश्किल ये थी कि कसम खकर झूठ बोलते हैं तो भगवान का कोपभजन बनना पडेगा और यदि सच बोलते हैं तो लोग उन्‍हें झूठा समझेंगे और इसका प्रभाव उनके जजमानों पर पडेगा जिसके सहारे अपने परिवार का जीविकोपार्जन करते हैं।

Monday, March 15, 2010

मांस नोचने हाथी पर टूट पड़े भूखे लोग

हमारे लिए ये अजीब सी बात है लेकिन जिम्बावबे के गोनारेजाउ नेशनल पार्क में ये उन लोगों के लिए ये भूख से लड़ाई की जद्दोजहद है। जैसे ही जिम्बावबे के जंगल के पास बसे गांव के लोगों को एक हाथी के मारे जाने की खबर मिली ये आरी, तलवार और चाकुएं लेकर उसके पास पहुंच गए। घने जंगल में एक मरे हुए हाथी की खबर मिलते ही वहां धीरे धीरे लोगों का हुजूम लग गया। ये अपने साथ डिब्बे भी लाए थे, ताकी घर लौटते वक्त हाथी का मांस उसमें भरकर ले जा सकें। हाथी के पास लगा हुजूम आपस में लड़ रहा था। अपनी और परिवार की भूख मिटाने के लिए उन्होंने धक्का मुक्की के बीच हाथी की चीर फाड़ शुरू कर दी। केवल एक घंटे 47 मिनट में 13 फिट ऊंचे हाथी को उन्होंने हड्डियों के ढांचे में बदल डाला। हाथी के शरीर का हर भाग उनके खाने के काम आता है, यहां तक की सूंड और कान भी। बाद में 70 साल के बूढ़े हाथी की बची खुची हड्डियां भी ये उबाल कर सूप बनाने के लिए ले गए। जिस जगह इस हाथी का मरा हुआ विशालकाय शरीर पड़ा था, वहां केवल खून का धब्बा बच गया।

इस क्षेत्र में गरीबी और भुखमरी इस कदर कहर बरपा रही है कि लोगों के पास बस जद्दोजहद ही एक उपाय बचा है। रेड क्रॉस सोसायटी के अनुसार देश के कुछ भागों में खाने की अत्यधिक आवश्यकता है। आशंका है कि आने वाले समय में हालात और बदतर हो जाएंगे। बारिश ने मक्का की फसलें नष्ट कर दी हैं, फसल इतनी कम हुई है कि दो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पा रहे हैं। जब यहां से साइकल गुजर रहे एक व्यक्ति को मरा हुआ हाथी दिखा तो अगले पंद्रह मिनट में वहां सैंकड़ो लोग चाकू लेकर मांस नोचने को इक्टठा हो गए। अब अगली दो रातों तक आसपास के गांवो में जश्न मनाया जाएगा। कुछ मांस ये ताजा बना लेंगे वहीं कुछ को सुखाकर बाद के लिए स्टोर कर लेंगे।

Saturday, March 13, 2010

महिला आरक्षण बिल

महिला आरक्षण बिल का राज्‍य सभा में पारित होना एक एतिहासिक घटना है। १४ साल के इंतजार के बाद देश की आधी आबादी को अब लगने लगा है कि उन्‍हें अब राजनीति में पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने का मौका मिल जाएगा। हालांकि अभी इस बिल को लम्‍बा रास्‍ता तय करना है। लोकसभा में पारित होने के बाद इसे राज्‍यों की मंजूरी के लिए भेजा जाएगा और राष्‍ट्रपति की मुहर लगने के बाद कानून बन जाएगा। जहां तक कुछ राजनीतिक दलों के विरोध की बात वह अनर्गल प्रलाप से ज्‍यादा कुछ नहीं है। लालू, मुलायम व शरद यादव को लगता यदि उन्‍होंने इसका विरोध नहीं किया तो उनका जनाधार खतरें में पड जाएगा। मंडल की राजनीति के सहारे सत्‍ता संधान का सपना देखने वाले इन नेताओं को यह मालूम होना चाहिए कि देश की आधी आबादी (महिलाएं) शोषित और वंचित हैं,चाहे वे किसी भी वर्ग से संबंध रखती हों। केवल दलित,पिछडी और मुसलिम महिलाओं के नाम पर इस एतिहासिक बिल का विरोध एक राजनीतिक ड्रामा के सिवा कुछ भी नहीं है।यदि उन्‍हें लगता है कि उनके वोट बैंक से जुडी महिलाओं की राजनीति में और भगीदारी होनी चाहिए तो वे अपनी- अपनी पार्टी में उनको 33 प्रतिशत टिकट दें सकतें हैं उन्‍हें रोक कौन रहा है।

Wednesday, February 10, 2010

बदलना होगा खुद को

लोकतंत्र ! यानि जनता के लिए जनता का शासन। हमारे देश में भी लोकतंत्र है और हमें सरकार व जनप्रतिनिधि चुनने का अधिकार, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? क्या हम लोकतंत्र के प्रति अपने अधिकारों व क‌र्त्तव्य को लेकर सजग हैं? यह एक बड़ा सवाल है। लोकतंत्र में किसी भी देश को सरकार व जनप्रतिनिधि वैसे ही मिलते हैं, जैसा उसका समाज होता है। वर्तमान में देश की जो राजनीतिक हालत है, उसके लिए केवल राजनीतिक दल व राजनेता ही दोषी नहीं हैं। कहीं न कहीं हम सभी जिम्मेदार हैं, क्योंकि उन्हें सत्ता में पहुंचाने का काम तो हम ही करते हैं, कभी वोट डालकर कभी उदासीन रह कर। जो मतदान करते हैं, अपनी क्षणिक सुविधा के लिए देश का दीर्घकालिक हित नहीं देखते। जो नहीं करते उनका मानना है कि सरकार चाहे किसी भी दल की बने उनकी स्थिति में विशेष बदलाव आने वाला नहीं है। हालांकि, ऐसा कर के वे एक तरह से अप्रत्यक्ष रूप से अयोग्य उम्मीदवारों की मदद ही करते हैं। चुनाव के प्रति जनता की उदासीनता लोकतंत्र के लिए शुभलक्षण नहीं है। सच तो यह है कि खरे-खोटे की शिनाख्त करने की जिम्मेदारी लोकतंत्र में सिर्फ जनता की है। सोचिए, आखिर आपका चुनाव बदलाव क्यों नहीं ला पाता। पांच साल बाद फिर आया है मौका। आगे आइए, सोचिए, समझिए, फिर नीति के नाते दल व व्यक्तित्व के नाते व्यक्ति को चुनिए। समय आ गया है, जब देश के हर नागरिक को यह सोचना होगा कि आखिर क्यों उनका नुमाइंदा दागदार है? सीधी सी बात है कि किसी भी नेता के चरित्र को देख कर उसके पीछे चलने वालों के चरित्र का आकलन किया जा सकता है। तो क्या मुट्ठी भर दागदार लोग देश की सौ करोड़ आबादी के चरित्र पर धब्बा लगा रहे हैं? क्या जिस लोकतंत्र के प्रति देश का हर खासो-आम श्रद्धा का भाव रखता है वह ऐसा ही होना चाहिए? जिन्हें हम चुन कर संसद में भेजते हैं क्या वह हमारी अपेक्षा के अनुरूप देश को चला रहे हैं? यदि नहीं तो फिर निश्चित रूप से गलती है हमारे फैसलों में।
हम जिन लोगों को चुन कर भेजते हैं उन्हें अपने सारे अधिकार सौंप देते हैं। अधिकार सौंपने से पहले विचार भी नहीं करते कि कितना अहम फैसला लेने जा रहे हैं। एक ही तरह की गलती बार-बार करते जा रहे हैं और उसका नतीजा हर बार पहले से कुछ अधिक दुखदायी सिद्ध होता है। हम व्यवस्था और तंत्र का रोना अवश्य रोते हैं, किंतु अपने गिरेबान में झांक कर कभी नहीं देखते। कभी उन कारणों की तलाश नहीं करते जो व्यवस्था में इस गड़बड़ी के कारक हैं। क्या यह अपनी जिम्मेदारियों से मुंह चुराने जैसा नहीं है?
आखिर कब तक, कब तक चलता रहेगा यह सब? हम इस खुशफहमी में जीते रहेंगे कि हम देश के सबसे बड़े लोकतंत्र के नियंता हैं, जबकि लोकतंत्र के नाम पर एक बदनुमा और अंधा तंत्र देश में फैला है। अब वक्त आ गया है जब हम आत्ममंथन करें और देखें कि इस सब के लिए केवल और केवल हम जिम्मेदार हैं। जिस दिन हम यह समझ लेंगे कि यह व्यवस्था हमारी ही गलतियों का परिणाम है, उस दिन हम इसे आसानी से बदल देंगे। खास कर युवाओं को इस काम में महती भूमिका निभानी होगी। युवा गलत बातों को तब तक नहीं पसंद करते, जब तक कि वह उनके परिवेश का हिस्सा न बन गई हो और वे उन बातों के अभ्यस्त न हो गए हों। प्राकृतिक रूप से युवा बुराई से नफरत करने वाले होते हैं। देश की भ्8 प्रतिशत से अधिक आबादी जवान है। यह समय है जब देश और समाज में मौजूद कुछ बुराइयों से मुक्ति पाई जा सकती है, बशर्ते युवा इस बात का अहसास करें कि उन्हें इस बदलाव का नेतृत्व करना है। हमें एक फैसला भर तो लेना है, यह सोचना भर है कि हम चुप नहीं बैठेंगे, हम सब कुछ ऐसे ही नहीं चलने देंगे, हम बदल देंगे। वैसे भी यह जनता का फर्ज है कि वह जो भी फैसला करे पूरे माप-तौल के बाद करे। ऐसे लोगों को चुने जो देश का हित करने वाले हों। चाहे वो किसी भी राजनीतिक दल के हों और सरकार चाहे किसी भी दल की बने। बदलाव का समय आ गया है और देश की जनता को यह समझना होगा कि केवल नेता बदलने से काम नहीं चलेगा, बल्कि व्यवस्था बदलने की आवश्यकता है। व्यवस्था तब बदलेगी जब हम सही फैसला करें। फैसला, अपने हक के लिए और अपने देश के लिए।

-कमलेश रघुवंशी